सुनो तो !
सुनो_तो !
एक परिंदा था;
उड़ता रहता बेखौफ ; अनन्त की ओर..?
बिना डरे बिना रुके; शाम ढलते ही जब भी
उसे गगन और आंगन में चूनना होता,
बिना किसी दुविधा के बस आंगन की ओर मुड़ जाता।
आसमान के सितारे उसे रोकते पर वो जमीन की शागिर्दी के आगे झुक जाता,
नीला आसमान उसे आवाज देता;
सुनो तो!
पर परिंदे को तो बस; अपने घरौंदे की आवाज सुननी होती; रास्ते में पड़ने वाले तालाब और किचड़ के बीच खिलता कमल उसे रोक लेता; थोड़ी देर रुकता
उसे देखता बिल्कुल शांत भाव से ,
जैसे सारी थकान खत्म और पंख आंगन की तरफ मुड़ जाते,
किचड़ में कमल देखने की उसकी पसंद कब उसकी आदत बन गई ; उसका मासूम दिल समझ ही नहीं पाया।
उसके मन पर संवेदनाओं का वर्चस्व था और इरादों पर जिद्द का; इनदोनों के बीच हमेशा घमासान चलता रहता, कभी संवेदना आगे तो कभी जिद्द पीछे,
कभी जिद्द आगे तो कभी संवेदना पीछे,
इनदोनों से परे
परिन्दा अपनी उड़ान में व्यस्त रहता;
बेफिक्र
उसे इस रुहानी जंग में कोई दिलचस्पी नहीं थी
उसे तो बस सफर तय करना था;
ईश्वर निश्चित अनन्त की ओर।
शाम की रोशनी में कभी-कभी अनगिनत रंगों के बीच जीभर कर खुद को जीता;
आसमान का वो वास्तविक नीला रंग
और संघर्ष के धरातल पर उसकी असीमित चाल ने उसे इतना तो सिखाया था,
“जो चोट बारबार लगे तो गलती ठोकर की नहीं होती”
शायद वो जान गया था, आज और अभी का वजूद
जो उसे हर पल कहता
जो बात सफर में है वो मंजिल में कहाँ…?️?
©दामिनी नारायण सिंह ?