सुनो … तुम मेरी जात पे सियासत अब न करो
सुनो … तुम मेरी जात पे सियासत अब न करो
अपनी खून से हमने इस मीट्टी को सींचा है
बैलों के साथ मिलकर हमने हल कंधे से खींचा है
जब सर्द रातों के बाहों में तुम सोते थे गिलाफों में
खेत की मेड पर तब हमने खुद में खुद को ही भींचा है
तुम चैन से जब सोफे में धंसे अख़बार के पन्ने पलटते थे
हम हल, कुदाल, फावड़ा से धरती की सलवटें सीते थे
तुम कहते हो हम फूहड़ हैं
हम कहते हैं तुम लीचड़ हो
भूख मिटाते हो उस अन्न से जिसको हम उगाते हैं
फिर भरे पेट से तुमको हम तनिक भी नहीं सुहाते हैं
महलों में अपने तुम ऐश करो हमने कब भला रोका है
पर मेरी जात को कैश करो यह तो बहुत बड़ा धोखा है
~ सिद्धार्थ