सुनहरी मंज़िल
चलो जुगनुओं की रौशनी में ही चलें
मगर चलते हैं
यूँ बैठे रहने से अच्छा है
मंज़िल की तरफ एक कदम का फासला कम करते हैं ,
सुना है बड़ी सुनहरी सी मंज़िल है
चलो कुछ कांच तो कुछ पत्थरों
की राह से चलते हैं ,
हौसला और मेहनत की नीयत बांध के चलते हैं
फिर देखते हैं की वो सुबह कैसी होती है
जिसकी आस में सियाह रातों से हो कर गुज़रे हैं
चलो जुगनुओं की रौशनी में ही चलें
मगर चलते हैं |
द्वारा – नेहा ‘आज़ाद’