सुनहरा सूरज
उस दिन
सुबह का सुनहरा सूरज
मीलों तक फैली
सिंघाड़े की क्यारियों पर
सोना बिखेरता
भाग रहा था
भागती रेल के साथ-साथ
कभी
छुप जाता
गंदले जल के तल में
कभी चमकता
एकदम आकाश में
सुबह का सुनहरा सूरज
भर गया मुझ में
एक अपूर्व उत्साह,
एक उमंग
उस दिन
सुबह का सुनहरा सूरज
आग से निकला
सोना बना
फिर दिन चढ़ने के
साथ-साथ
धीरे-धीरे
चाँदी बनता
सुबह का सुनहरा सूरज
कह रहा था मुझसे
आँखें खोलो
सोचो,
जरा समझो
यही तो व्याख्या है
जीवन की
गर्भ की अग्नि से
निकला मानव,
स्वर्ण बन कर
चमकता नक्षत्र सा
और
बढ़ती उम्र का
दिन
छल-प्रपंच की चाँदी से
मंडित करके
सुनहरे प्रभात के
सोने को
ग्रस लेता है
राहु सा
और
खो देता है
अपना नयनाभिराम सौंदर्य
सुबह का सुनहरा सूरज
तपता है
जलता है-जलाता है,
और धीरे-धीरे
डूब जाता है
मृत्यु के अंधकार में