सुगंधा
#कहानी…..
#सुगंधा ***
❤❤..
उनको जटाओं में उलझ करके तो गंगा बन ही जाना था..!
खुश्बू को अपने प्रेम से मिलकर सुगंधा बन ही जाना था..!
#यशवन्त”वीरान”
उस दिन पापा की तबियत कुछ ठीक नहीं थी.मैं घर के काम में व्यस्त थी तभी पापा की आवाज सुनाई दी.”बेटी खुश्बू,आज तबियत कुछ भारी लग रही है,रामू फूल लेकर आ रहा होगा उसे मना कर देना.कहना आज फूल नहीं लेंगें दुकान नहीं खुलेगी.”
“क्यों.? क्या हुआ पापा.!”कहते हुये मैंने उनके माथे को छुआ तप रहा था.”पापा आपको तो बुखार है.!मैं अभी जाकर आपके लिये मेडिकल स्टोर से दवाई लेकर आती हूँ,आप नाश्ता करके दवा खाकर आराम करिए,दुकान मैं खोल लूँगी, दिन भर खाली ही तो रहती हूँ, माँ भी तो नहीं जो अकेलापन बाँट लेती.”
मेडिकल स्टोर से दवाई लाकर पापा को खिलाने और नाश्ता कराने के बाद मैं निश्चिंत हो गयी.घर का काम तो मैं पहले ही निपटा चुकी थी.रामू काका के आने पर मैंने दुकान खोली और उनकी मदद से उनके लाये खूबसूरत खुश्बूदार फूलों से दुकान सजाने लगी.
अब मैं आपको अपना परिचय दे दूँ,मेरा नाम खुश्बू है मैं अपने माता-पिता की एकलौती संतान हूँ,हर माता-पिता की तरह मुझे भी बडे़
लाड़-प्यार से पाला और पढाया गया.जब मैं बड़ी हुई तो उन्होंने मेरे ही कहने पर (मेरे सपनों के बिखरनें के बाद) एकअच्छा सा रिश्ता देखकर मेरी शादी भी कर दी और मैं हँसते-रोते अपने ससुराल भी चली गयी. लेकिन मेरे भाग्य में कुछ और ही लिखा था,बिना सास की ससुराल मिली पति इंजीनियर औरबूढ़े ससुर यही मेरा छोटा सा परिवार था.
शादी के तीन माह पूरे होते-होते मुझे प्यार करने वाला पति एक रोड एक्सीडेंट में मुझे विधवा बनाकर चला गया,अपने बेटे के ग़म में बूढ़ा बीमार बाप भी चल बसा.
बेटी के फूटे भाग्य का बोझ मेरी माँ भी नहीं उठा सकी और हम बाप-बेटी एक दूसरे के आँसू पोंछने के लिये बच गये.शहर के आजाद नगर मोहल्ले में घर के बाहर के कमरे में फूलों की दुकान थी.
वक्त ने बाप-बेटी को एक दूसरे का सहारा बनने पर मजबूर कर दिया था.मैं भी ससुराल से अपना सबकुछ समेट कर अपने बूढ़े बाप की देखभाल करने अपने मायके चली आई.मैं घर का काम देखती और पापा दुकान,बस जिन्दगी ऐसे ही गुजर रही थी. बचपन से आज तक जब कभी जरूरत पड़ती तो दुकान मैं सम्हालती थी.फूलों के बीच समय गुजारना मुझे अच्छा लगताहै शायद इसीलिए पापा ने मेरा नाम खुश्बू रखा था.
रामू काका हमारे पुराने फूल वाले थे दुकान सजाने में मेरी बहुत मदद करते थे.दुकान सज चुकी थी रामू काका भी जा चुके थे. मैं स्प्ररिंकर से फूलों को तरोताज़ा रखने के लिये स्प्रे कर रही थी..
तभी..
ऐ सुगंधा आंटी..!
सफेद गुलाबों वाला एक गुलदस्ता देना जरा..!
पलट कर देखा दुकान के सामने एक कार की खिड़की से ड्राईवर के बगल में बैठी एक चार-पाँच साल की गुड़िया जैसी सुंदर बच्ची मुझे ही आवाज दे रही थी.
सुगंधा…!!
मैं चौंक गयी..!
फिर भी मैंने एक खूबसूरत सफेद गुलाबों का लेकर उसकी कार के पास जाकर देते हुये कहा “बेटी..! मेरा नाम सुगंधा नहीं खुश्बू है.!
“तुमने मुझे सुगंधा क्यों कहा.!”
“बडी़ लम्बी कहानी है सुगंधा आंटी..अभी जरा जल्दी में हूँ..! लौटकर बताऊँगी..!”और बिना पैसे दिये उसने गुलदस्ता लेकर ड्राईवर से कार चलाने को कहा और कार के शीशे बंद कर लिये.कार तेजी से आगे बढ़ गयी..!
लेकिन मैं भी धीरे-धीरे अतीत की गलियों में भटकनें के लिये मजबूर हो गयी.
***
उस दिन मैं कालेज से लौटी थी,पापा ने मुझे देखकर कहा बेटी तेरी माँ कई बार खाने के लिये आवाज लगा चुकी है थोडी देर दुकान देख ले मैं खाना खाकर आता हूँ. अक्सर मेरे कालेज से लौटने पर पापा मुझे दुकान पर बिठाकर खाने चले जाते और उतनी देर में मैं मुरझा रहे फूलों को तरोताज़ा करने में जुट जाती मुझसे फूलों का मुरझाया चेहरा अच्छा नहीं लगता था.
हैलो..! सुगंधा जी..!
ठीक इसी अंदाज में किसी ने मुझे पुकारा था.दुकान के बाहर एक चमचमाती कार से एक खूबसूरत नव-जवान उतर कर मेरी तरफ बढ़ रहा था.
“मैं सुगंधा नहीं हूँ मिस्टर…!
मेरा नाम प्रेम है..! उसने मेरी बात काटते हुये कहा.”मेरा पूरा नाम प्रेम प्रकाश है,मुझे सब प्यार से प्रेम कहते हैं आप भी कह सकती हैं.इन खूबसूरत और खुश्बूदार फूलों के बीच रहने वाली कोई सुगंधा ही हो सकती है.!”
उसने बड़ी बेबाकी और शरारत से मुस्कुराते हुये अपना परिचय दिया था.
देखिये..! मैंने आपको अपना नाम बता दिया और मैं सड़क के उस पार बनी पीली कालोनी में दिख रहे उस पीले से मकान के मालिक कर्नल राजेन्द्र सिंह का भतीजा हूँ, मेरे अंकल फातिमा हास्पिटल में एडमिट हैं उन्हें सफेद गुलाब बहुत पसंद हैं इस लिये आप मुझे एक सुंदर सा सफेद गुलाब का गुलदस्ता दे दीजिए.! वह एक सांस में सब कहता चला गया.
मैं स्तब्ध सी एकटक उसे निहारती रह गयी.वह फिर कहने लगा.. मेरे अंकल को ब्लड कैंसर है और उनका मेरे सिवा कोई नहीं है इसलिये उनकी देखभाल के लिये मैं फौज़ से छुट्टी लेकर आया हूँ.मुझे रोज़ एक गुलदस्ता चाहिए.!चाहे तो आप एडवांस ले लीजिये या जैसा आप चाहें..!”
उसके लगातार बोलते रहने से मेरी बोलती तो पहले ही बंद हो चुकी थी.
ये तो अच्छा हुआ उसी वक्त पापा खाना खाकर आ गये,मैंने उस बातूनी को पापा के हवाले किया और पलट कर उसको एक नज़र देखती हुई घर के अंदर चली गयी,लेकिन अंदर जाते-जाते एक बार फिर उसकी आवाज सुनकर ठिठक गयी, “अंकल,आपकी बेटी भी आपके फूलों की तरह ही सुंदर है. “पापा हँस दिये वो भी हंसा और मैं शरमा कर अंदर भाग गयी.
शाम को पापा ने मुझे फिर उसके बारे में बताया बहुत प्यारा बच्चा है, उसका नाम प्रेम है फौज में कैप्टन है,बहुत बातूनी लगता है अपने अंकल की देखभाल के लिये कुछ दिनों की छुट्टी लेकर आया है,रोज़ अपने अंकल के लिये एक गुलदस्ता ले जायेगा इसलिये पैसे एडवांस दे गया है.
***
उस दिन मैं दुकान पर बैठी थी.
“हैलो सुगंधा जी..!”
कार से उतर कर वह दुकान की तरफ चला आया उसे देखते ही मैंने एक सफेद गुलाब का गुलदस्ता उठाकर उसे देने चल दी ताकि वो जल्दी से गुलदस्ता लेकर चला जाये वरना उसकी लम्बी-लम्बी बातें सुननी पड़ती, लेकिन वह लम्बे लम्बे कदम बढ़ाता हुआ पास आ चुका था मैंने झट से गुलदस्ता उसकी तरफ बढ़ा दिया,मगर वो शरारती अपनी आदत से कब बाज आने वाला था उसने गुलदस्ते सहित मेरे हाथों को अपनी दोनों हथेली में भर लिया और मुस्कुराते हुये बोला.! “फूलों की तरह आपके हाथ भी बडे़ कोमल हैं सुगंधा जी..!” उसके हाथों का स्पर्श होते ही मैं सिहर उठी,एक अजीब सा नशा था उसकी छुअन में.जब तक मैं सम्हलती उसे जवाब देती वह गुलदस्ते सहित कार में बैठकर फुर्र हो चुका था.
मैं उसकी इस शरारती हरकत से अजीब सी उलझन में फंसी रह गयी, मेरे अंदर कुछ कुछ सा महसूस हो रहा था,धडकनों में गुदगुदी सी हो रही थी और सांसें भी मुझे गर्म महसूस हो रही थी.मैं समझ नहीं पा रही थी आखिर मुझे यह हो क्या रहा है.
लेकिन एक दिन उस बातूनी ने उसे अपने बारे में सब कुछ बता ही दिया.!
प्रेम एक अनाथ नवयुवक था जिसे कर्नल राजेन्द्र सिंह ने अपनाया, पढाया लिखाया और पाल-पोस कर फौज़ में भर्ती कराया था.उसके अंकल मस्त मौला और एक खुशमिजाज़ इंसान थे.वे जाति-धर्म में नहीं इंसानियत में यकीन रखते थे इसलिये उन्होंने एक अनाथ बच्चे को अपना बना लिया था.पत्नी के गुजर जाने के बाद उन्होंने अपना सारा प्रेम इस प्रेम पर उड़ेल दिया था,अकेले पन और उम्र ने उन्हें न जाने
कब बीमार बना दिया वे नहीं जान सके,लगातार शराब और सिगरेट ने उन्हें ब्लड कैंसर का मरीज़ बना दिया था,आज वो शहर के इस नामी फातिमा हास्पिटल में अपनी आख़िरी घड़ियाँ गिन रहे थे.
चूंकि प्रेम के सिवा उनका और कोई नहीं था इसलिये प्रेम उनकी देख भाल के लिये उन्हें हर तरह से खुश रखते हुये खुशी-खुशी बिदा करने फौज़ से छुट्टियाँ लेकर आया था.प्रेम के जीवन में खुश्बू कब सुगंध बनकर उतर गयी ये दोनों ही नहीं जान सके, कुछ मुलाकातों में कौन किसकी धडकनों का हमसफ़र बना ये भी पता नहीं चल सका.पता ही नहीं चला..
होश तब आया जब कर्नल साहब की मौत हो गयी और प्रेम बच्चे की तरह फफक़ कर रो रहा था.खुशबू का हाथ कन्धे पर महसूस करते ही वह उससे लिपट कर रो पडा़ था और उसदिन वह भी अपने आप को रोक नहीं पाई थी,दोनों ही आपस में लिपट कर बच्चों की तरह खूब
रोये थे.
और उसके बाद अंकल के क्रिया-कर्म से लेकर सारे कर्मकांड निपटानें
में प्रेम व्यस्त रहा सहयोगिनी तो वो भी थी पर वह प्रेम की सहभागिनी बन पाती कि अचानक फौज़ के फरमान ने उसके अरमानों का गला
घोंट दिया..!
लम्बी छुट्टियाँ आकस्मिक कारणों वश निरस्त कर दी गयीं और एक दिन उसकी गैर मौजूदगी में प्रेम पापा को अपनी रवानगी की खबर देकर चला गया.
उसके बाद न कोई ख़त और न खबर..!
खबर देता भी तो कौन..?
किससे पता करती उसके बारे में..!आखिर मैं उसकी थी क्या.?
एक फूल बेचने वाली का एक फौज़ के कैप्टन से रिश्ता ही क्या था..!
लेकिन कुछ था..जो उसे चुभ रहा था.!जो सुगंध बनकर खुश्बू में समा चुका था.. उसने उसे.. सुगंधा जो कहा था.
प्रेम का झोंका खुश्बू को महका कर वक्त आँधियों में खो गया था.
**
और,
आज दो साल बाद वक्त के दोराहे पर कोई उसे आवाज दे रहा था…
ऐ..! सुगंधा आंटी..!!
कौन है ये सुंदर सी प्यारी बच्ची,इसने मुझे सुगंधा आंटी.!
क्यों कहा..?वह अजीब सी उलझन में उलझकर रह गयी कौन हूँ मैं खुश्बू या सुगंधा…!!
इसके साथ ही प्रेम का एक खुश्बूदार झोंका उसके मन को महका कर चला गया.उसने खुद को तो पहले ही वक्त के हवाले कर दिया था. लेकिन वक्त ने उसे आज फिर उसी मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था जहाँ वह फिर खुश्बू से सुगंधा बन गई थी.
पापा सो चुके थे,उसकी आँखों की नींद आज इसी उलझन में उलझी
हुई थी कि ये चार-पाँच साल की प्यारी सी बच्ची आखिर वो थी कौन.? उसने उसे सुगंधा आंटी कह कर क्यों पुकारा..?
“खट्-खट्” दरवाजे पर हुई दस्तक से वो चौंकी. साथ ही वही आवाज फिर सुनाई दी.. सुगंधा आंटी..! दरवाज़ा खोलिये..!!”
अजीब से सम्मोहन में बंधी वो दरवाजे की तरफ लपकी और मैंने दरवाज़ा खोल दिया.दरवाजे पर वही नटखट सी बच्ची खड़ी मुस्करा रही थी.दरवाज़ा खुलते ही उसने अपने नन्हें-नन्हें गुलाबी होंठों पर ऊँगली रख कर मुझे खामोश रहने का इशारा किया..!और अपने साथ पीछे आने के लिये बोली.मंत्रमुग्ध सी वह उसके पीछे-पीछे चलती हुई बाहर खड़ी कार के अंदर जा कर बैठ गयी कार धीरे धीरे रेंगने लगी, कार में बैठने के बाद उस बच्ची ने अपनी चुप्पी तोड़ी.आप परेशान
न हों सुगंधा आंटी..!! आप जानना चाहती हैं कि मैं कौन हूँ .? और आपको सुगंधा आंटी क्यों कह रही हूँ जबकि आपका तो नाम खुश्बू आंटी है.. है न्..!
हाँ ..! मेरी बच्ची… उसे अपनी आवाज हलक़ में फँसी हुई सी महसूस हुई क्योंकिं मैं खुद ही इसी सवाल के माया-जाल में उलझी हुई थी इस लिये जल्दी से जल्दी इस भंवर से मुक्त होना चाहती थी मगर पूरी तसल्ली के बाद इसलिए मेरी जुबान लड़खड़ाने लगी.
“तुम कौन हो बेटी…? तुमने मुझे उलझन में डाल रखा है,तुम्हें मेरा ये नाम किसने बताया..?
“बताती हूँ… बताती हूँ… थोड़ा ठंड रखिये आंटी..!”वह बूढ़ी-दादी की तरह हाथ हिलाते हुये बोली.
“मैं गुड़िया यानि कोयल हूँ,आपके बातूनी यानि अपने प्रेम अंकल के दोस्त कैप्टन हमीद की बेटी. प्रेम अंकल लड़ाई में जख्मी हो गये थे उनके कहने पर ही उन्हें यहाँ लाया गया है क्योंकि यहाँ उनके कर्नल अंकल का मकान है और हमारा भी. उन्हें जब हम लोग आज सुबह
जब फातिमा हास्पिटल में एडमिट कराने ले जा रहे थे तो लगभग बेहोशी की हालत में भी उन्होंने आपको फूलों की दुकान पर खड़ा देख लिया था,तब कार में मैं भी पापा के साथ थी प्रेम अंकल मेरे बहुत अच्छे दोस्त हैं,उन्होंने ने मुझे आपके बारे में सब बता रखा था वो मुझसे अक्सर आपकी ही बातें करते रहते थे,आज उन्होंने इशारे से आपको दुकान पर खड़ा हुए दिखाया था और कहा कोयल मुझे भी सफेद गुलाब बहुत पसंद हैं सामने उस फूल की दुकान पर तुम्हारी वही सुगंधा आंटी खड़ी हैं उनसे मेरे लिये एक गुलदस्ता ले आना.हास्पिटल पहुँचते-पहुँचते वो फिर बेहोश हो गये.
कोयल से प्रेम के ज़ख्मी होने के बारे में सुन कर उसका दिल हलक़ में आ फंसा था जुबान सूख करके तालू से चिपक सी गयीं थी वह कुछ भी कह पाने की स्तिथि में नहीं थी बस गूंगे-बहरों की तरह सर हिलाकर रह गयी.
कोयल बोलती जा रही थी,आंटी पापा ने प्रेम अंकल को वहाँ एडमिट करा कर मुझे ड्राईवर के साथ आपके पास फूल लाने भेज दिया था. मैं आपके पास वही सफेद गुलाब का गुलदस्ता लेने आई थी.
अब प्रेम अंकल होश में आ गये हैं और उन्होंने मुझे आपको बुला कर लाने के लिये भेजा है..! बस और मुझे कुछ नहीं मालूम..!
आप अगर उनसे मिलना चाहती हैं तो मेरे साथ चलें..! वरना आपकी मर्ज़ी..! कार वापस घूम कर फिर घर के दरवाजे पर आकर खड़ी हो चुकी थी.
अजीब सी कशमकश में उलझी हुई थी मैं लेकिन मुझे ये जान कर थोड़ी सी राहत हुई कि ये बच्ची प्रेम की यानि प्रेम की अपनी बेटी नहीं थी..!
उसे याद आया कि जब वह अपनी ससुराल में थी तो एक बार पापा उससे मिलने आये थे तो उन्होंने उसे बताया था कि प्रेम दुकान पर आया था और मेरे बारे में पूंछ रहा था.उसके बाद भी शायद एक दो बार आया मगर तब वह अपने पति के ग़म में ही इतनी बेसुध थी कि उसे कुछ भी याद नहीं रहा..!
आज अचानक इस बच्ची ने उसे सुगंधा नाम से पुकारना फिर उसकी ठहर सी चुकी जिंदगी में हलचल मचा गया था.!
मैंने बिना कुछ सोचें समझे कार से उतर कर घर को बंद किया और फिर वापस आकर चुपचाप कार में बैठ गयी.
कार फिर चल पड़ी..!
कार फातिमा हास्पिटल पहुँची, गुड़िया खुश्बू का हाथ पकड़ कर लगभग दौड़ती हुई उस दरवाजे के सामने ठिठक गयी जिसके सामने उसके पापा कैप्टन हमीद पहले से ही खडे़ थे.गुड़िया मेरा हाथ छोड़ कर अपने पापा से जा लिपटी और ऊँगली के इशारे से मुझे उस बंद दरवाजे के अंदर जाने का इशारा करती हुई बोली.. “अंदर जाइये न सुगंधा आंटी..! प्रेम अंकल आपका ही इंतजार कर रहे है,अब आप ही उनका ख्याल रखिये.!
हमारा काम खत्म..!
बाई..!बाई..! चलिए पापा..!” कहती हुई वह अपने पापा का हाथ पकड़ कर हास्पिटल के गेट की तरफ चल दी.!
उस बन्द दरवाजे के बाहर अकेले खडे़ मेरे पैर कांप रहे थे..!
जब तक बच्ची थी उसे सहारा सा था अब वह खुद को..!”
तभी उसे लगा कि पीछे से कोई उससे कुछ कह रहा है..!
उसने पलट कर देखा तो पापा थे जो उससे ही कह रहे थे.
“जाओ बेटी सुगंधा..!
अंदर प्रेम तुम्हारा ही इंतजार कर रहा है.! उसे तुम्हारे बारे में सब पता है और वह यहाँ तुम्हारे लिये ही आया है..!”
इससे पहले कि वह कुछ सोंचती समझती दरवाजा खुला सामने प्रेम
को देख वह कब कटी पतंग की तरह लहराकर उसकी फैली बाहों में खुश्बू की तरह समा गयी पता ही नहीं चला..!!
इति..!
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