जीवन
जीवन का तो अर्थ आनंद है, व्रण है।
सुख-दुःख का सतत अनियंत्रित घूर्णन है।
आशा-निराशा-युत दिन-रात का चढ़ना,
कभी हर्ष और कभी विषाद का बढ़ना।
भावनाएँ हैं क्षणिक व सहज ही चंचल,
लहरों-सी वे उठतीं गिरतीं हैं प्रतिपल।
उनमें ही उलझाना , उन्हें बढ़ाना है,
या कि ज्वार-भाटा को स्वयं बुलाना है।
हाँ, दुःख और संताप अधिक दाहक है,
लेकिन नहीं वह व्यर्थ,निरर्थ ,नाहक है।
तपता है जब सुवर्ण आभूषण बनता।
हीरा घिसकर सदैव पाता नूतनता।
घिस-घिसकर बनते जाते हैं शिवशंकर,
ज्यों नर्मदा नदी के सब कंकड़-कंकड़।
धुँए से सुगबुगाहट अलाव में जगती।
कटीले सीपों में लब्ध होते मोती।
सावन में ठूँठों- लदती पत्तियाँ-हरी,
(कठिन तप के बाद मिलती सफलता बड़ी!)
प्रत्येक दिन ही सूर्य अस्ताचल जाता,
नहीं पखवाड़े भर चाँद भी दिख पाता।
फिर भी कभी यह प्रकृति हताश होती है?
क्योंकि प्रति तम के पीछे जगमग ज्योति है।
अतः विपद की सोच निरर्थ ठिठकना है,
मनोकल्पना कर बेकार कलपना है।
सुख दुःख है दो ज्वार, जीवन है सरिता।
मानव नौका सतत डूब-उबकर,तिरता।
लहर नहीं अनुकूल रह सकती सर्वदा,
कूल पहुँचना संघर्षमय होता सदा।
-सत्यम प्रकाश “ऋतुपर्ण”
(दि०: २१-०२-२०२२)