सुख-दुःख
सुख-दुःख
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‘सुख-दु:ख’ तो आती , साथ में,
सबकी किस्मत लिखी, हाथ में,
मत घबराओ , किसी हालत में;
धैर्य धरे, जब ‘कली’ भी रात में;
पुष्प बनने के, अथक प्रयास में,
खिले वह तब , प्रथम प्रभात में;
ना तो, सदा ‘सुख’ ही है अपना;
ना ‘दुःख’ ही , सदा साथ रहेगा;
देखो तुम भी अब , एक सपना;
कि कष्ट में न रहे , कोई अपना;
सुख-दुःख तो, सबका साथी है;
एक आती तो एक दूर जाती है;
दुख में जल भी,सदा रोशनी दो;
जैसे ‘दिया’ में, जलती ‘बाती’ है;
और अपना,’प्रकाश’ फैलाती है;
सिर्फ ‘कर्म’ करो, व भूल जाओ;
ये मत सोचो, ‘मानव’ तुम कभी;
कि ‘कर्मफल’ भी मिलेगा,अभी;
जग में , अमीरी-गरीबी से भला;
सुख और दुःख का , क्या लेना;
गरीबी में भी, अच्छा सुख मिले;
अमीरों’ को भी तो, ‘दुःख’ गिले;
परिवर्तन तो भी,परम ‘नियम’ है;
खुश तो वही है, जहां ‘संयम” है;
जिये जो , ‘परोपकारी’ जीवन है;
दुःख में भी तो , सदा सुखी वही,
जो कहलाए , हमेशा ‘श्रमण’ है।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️पंकज ‘कर्ण’
………….कटिहार।।