सुख क्यों है सुख
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द्वेष का देह है सुख का।
अहम् का मन।
ईर्ष्या के रक्त से हुआ है
मांसपेशियों का गठन।
समृद्धि में सुख पहचानने को आतुर।
सुख की समृद्धि देता है खो।
दरिद्रता में दु:ख जानने वाला,
दु:ख को सुख के आंसुओं से लेता है धो।
विजय का सुख क्या है आखिर?
अकड़ से पराजय के सिवा।
किसी हत्या का,चाहे वह खुद की हो।
हत्यारा होने के सिवा।
सम्मान में सुख खोजते हुए
किसीके अपमान पर होते हुए संतुष्ट।
कैसा सुख होता है हासिल!
अपने को बनाता हुआ दुष्ट।
सुंदरता से सुख की अनुभूति
वस्तुत: नश्वरता से है मोह।
छीजन रोकने हेतु मचा हुआ
तन और जीवन में ऊहापोह।
रिश्तों में सुख है, निभाने से।
दिया हुआ है तो कुछ पाने से।
दिया नहीं तो अहसान का दु:ख
खड़ा हो जाता है सीना ताने।
सुख लोभ है लिप्सा से जन्मा हुआ।
लालच का कर्म में बदला स्वरूप।
भोग की अदम्य लालसा से परिवर्द्धित
सृष्टि को लगा हुआ निर्विघ्न रोग।
ईश्वर से सुख मांगने में विनीत।
सुख की अनुभूति में भूलता हुआ ईश्वर को।
इसमें भी सुख तलाशते हुए लोग।
मेरे लिए भी कह देना सुख देने परमेश्वर को।
सभ्य होने में बड़ा सुख है।
सुखी हुए तो हो जाते असभ्य हैं।
सुख तलाशते लोगों से पूछना है कि
सभ्यता बड़ी है या वे भव्य हैं।
धर्मांध होकर धर्म-सुख भोग
ईश्वर के आदेशों का मनगढ़ंत रोमांच।
घृणात्मक भक्ति का आदान-प्रदान।
व्यक्ति पर व्यक्तिगत नहीं है यह आँच?
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