सुख के सब साथी
आज मोहन को सोहन की बहुत याद आ रही थी, उसकी कही गई एक एक बात कानों में गूंज रही थी, आंखों से उसकी निश्चल छवि नहीं नहीं हट रही थी आज अश्रु धारा गंगा जमुना सरस्वति संगम बन वह रही थी अदृश्य सरस्वती ज्ञान के रूप में अंतर्मन निर्मल कर मुक्ति सा अमरत्व की ओर लिए जा रहा था।
उसने बहुत रोका था सब समझाया था, दोस्त नशा समस्या का हल नहीं, समस्याओं अथाह सागर है उसमें डूबना ही डूबना है।
काश उसकी सुनी होती आज इस दशा को प्राप्त नहीं होता।
सच कहता था “सुख के सब साथी,दुख में न कोय”उसने कहा था एक दिन ये सब तुम्हें छोड़कर चले जाएंगे अपने काम पर ध्यान दो नहीं तो गिरते भी देर नहीं लगती।
मैंने उस दिन कितना अपमानित कर दिया था, फिर भी उसने जाते जाते कहा था, कभी मैं याद आऊं तो मेरी बातों को भी अपने अपने अंतस की गहराइयों में डूब कर सोचना शायद सत्य तुम्हें मिल जाए और कभी मुक्ति का मार्ग मिल जाए।
आज मुझे मुक्ति मिल गई है, कर्म भाग्य जो भी कहें बहुत कष्ट
तकलीफें उठाईं,सब वीत गया।
आज सोहन के प्रेरणादायी शब्द “वीती ताहि विसार दे, आगे की सुध लेय”जैसे मेरे जीवन में नई ऊर्जा भर रहे है, भंवरजाल में फंसी जीवन नैया संसार सागर में पार हो जाएगी इतनी शक्ति दे रहे हैं।
हम गांव में पले बढ़े खेले कूदे उस समय भी सोहन बड़ा समझदार था शायद गरीबी स्वयं एक विश्वविद्यालय है।
मै आर्थिक रूप से सक्षम कारोबारी परिवार से ताल्लुक रखता था, सोहन के पिताजी की थोड़ी सी जमीन थी,किसी तरह अपनी आजीविका चलाते थे,सोहन जल्दी ही अनुभव से बढ़ा हो गया था। हाईस्कूल पास कर सोहन छात्रवृत्ति से पढ़ते हुए अधिकारी बन चुका था दिल्ली में पदस्थ था।
पिताजी का देहांत हो गया था,भाई ने अपना हिस्सा ले लिया था,
कुसंग और नशे में सब कुछ गंवा चुका था,जो कभी हाथ बांध कर सामने खड़े रहा करते थे,आज धमका रहे थे, अर्थ के इस युग में शायद पैसे को ही सब कुछ मान लिया है, मानवीय संवेदना मर गई है संस्कार मिट रहे हैं, कौन किसे गिनता है?ऐंसी बिषम परिस्थितियों में जैसे सोहन खुद साथ हो उसके द्वारा कहे शब्द मुझे मझधार से बाहर निकल आने में संजीवनी का काम कर रहे थे। शहर की सभी प्रापर्टी बिक चुकी थी सो गांव के पुस्तैनी मकान में ही शरण मिली, पैतृक खेती कर साधारण किन्तु शांति से भरा जीवन व्यतीत हो रहा था।
संध्या ढल गई थी मंदिर में सांझ आरती की शंख घंटा ध्वनि
कानों में गूंज रही थी तभी अचानक सोहन सामने आ गया एक टक देखते हुए कब बाहों में समा गए अश्रुबिंदु छलक पड़े कब अज्ञान और अहं रुपी कचरा वह गया। सोहन और मोहन अब प़गति के नए सोपान लिखने को आतुर हैं।
सुरेश कुमार चतुर्वेदी