सुख की चाह
मैं जून में कपास ओढ़कर सोया।
उबल रही थी धरती और
जल रहा था बतास।
नहीं मालूम मुझे
दरख्त की छाया क्या होती है?
क्या होता है तनावर दरख्त!
मेरे आसपास
सारा कुछ रहा दोपहर।
सूर्य ठीक मेरे सिर के ऊपर।
किसी बरगद के सघन छांव में
विश्राम के सुख को
बहुत लालायित रहा मेरा मन।
अब उम्र के उस पड़ाव पर
आ गया हूँ खिसककर,जहां से
आगे अलिखित है
और पीछे बेमतलब।
अंशुमालि मेरी परिक्रमा करे या
मैं घुमाता रहूँ अपना चेहरा लगातार।
चाहे जो भी हो।
मेरा आधा छाया में रहेगा
और आधा तीक्ष्णता में सूर्य के।
जलता रहूँगा ताप में ज्यादा।
छाया में भी जीवन के उपक्रमों से।
जीवन के पूर्ण होने तक।
मृत्यु ही जीवन की पूर्णता है अंतत:।
जीवन में
उपलब्धियों की लंबी शृंखला के बाद भी
पूर्णता का बोध होता हुआ भी
पूर्ण होता नहीं जन्म।
तप्त रश्मियों से विश्राम के सम्पूर्ण सुख
भोग नहीं सकता।
उम्र के सर होने तक।
छाया का सुख क्या होता है?
इसलिए
मैं जून में कपास ओढ़कर सोया।
———–4/11/21—————-
(सर=चरम सीमा अर्थात मृत्यु)