“वृद्धाश्रम”
सुखीराम जी का जीवन वास्तव में सुख से बीत रहा था। वजह थी समय के साथ बदलाव को स्वीकार करना।
बचपन मे जब साइकिल सीखने की उम्र थी तो साइकिल सीखी और आस पडौस में सबको बोल दिया कि मुझे साइकिल चलाना आता है। बस फिर क्या था। जब भी मौहल्ले में कोई ऐसा काम होता जिसमे 2-3 किलोमीटर तक जाना होता तो उन्हें ही बुलाकर भेजा जाता और पड़ोसी ही साइकिल का भाड़ा देते। इस तरह से पड़ोसियों का काम भी हो जाता और इन्हें फ्री में साइकिल चलाने को मिल जाती। (पूछने पर बताते हैं कि काम तो वैसे भी हम बच्चों को ही करना पड़ता, चाहे पैदल जाओ इसीलिए तो साइकिल सीखी ताकि मेरे सारे दोस्त इस परेशानी से बच जाए और बदले में वे मेरा काम कर देते थे। जिससे मौहल्ले में रुतबा बढ़ गया था।)
इसी तरह पढ़ाई में भी वे उस विषय में ज्यादा समय देते जो उन्हें कठिन लगता ताकि औरों से पीछे ना रहे।
शादी के बाद जब उन्होंने अपनी पत्नी को नाम से बुलाना शुरू किया तो परिवार और मोहल्ले वाले बातें बनाने लगे। लेकिन उनके संगी साथी इससे काफी प्रसन्न हुए क्योंकि उनमे इतनी हिम्मत नहीं थी मगर उन सबकी इच्छा तो यही थी कि वे भी अपनी पत्नियों को उनके नाम से बुलाये।
शहर में आते समय उन्होंने अपने परिवार को साथ लाने का प्रयास किया तो सभी नाराज होने लगे मगर उन्होंने कहा कि शहर में बाहर का खाना उन्हें अच्छा नहीं लगता इसलिए अगर शहर जाएंगे तो परिवार को साथ लेकर अन्यथा नहीं जाएंगे। शहर जाना जरूरी था इसलिए घर वालों ने इसकी इजाजत दे दी और बाकि सबके लिए भी राह खुल गई।
इसी तरह से उन्होंने हमेशा इस बात की परवाह किए बगैर कि लोग क्या सोचेंगे या क्या कहेंगे, समय समय पर होने वाले बदलाव के साथ चलते हुए अपने मन की ही की।
और आज वे उम्र के उस पड़ाव पर आ पहुंचे है जब उन दोनों (पति पत्नी) को किसी भी वक्त एक सहारे की जरूरत पड़ सकती है। बच्चे अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त है। इसलिए उन्होंने अपना दाखिला अपने शहर के ही एक प्राइवेट वृद्धाश्रम में कराने का फैसला लिया। वहां पर उन्होंने अपने पैसे से खुद के लिए वो सब सुख सुविधाएं उपलब्ध करवा ली जिनके साथ वे आज तक रहते आये हैं। उन्होंने स्वयं वृद्धाश्रम की बागवानी और ऑफिस में कार्य करना शुरू कर दिया और उनकी पत्नी ने रसोई में और साफ सफाई में हाथ बँटाना शुरू कर दिया ताकि स्वच्छता और सही भोजन के साथ साथ उनका स्वास्थ्य भी ठीक रहे। उनके इस व्यवहार के कारण आश्रम में रहने वाले अन्य लोग भी किसी ना किसी काम मे कुछ ना कुछ हाथ बंटाने लगे। जिससे उन सबका स्वास्थ्य ठीक रहने लगा और उन सबके अपने अपने गृहस्थ जीवन के अनुभवों का लाभ मिलने लगा। जिसके कारण आज वो वृद्धाश्रम शहर का सबसे समृद्ध और उच्च कोटी का आश्रम बन गया है जहाँ उन सब को अच्छी स्वास्थ्य सुविधा, भोजन, दैनिक जीवन की वस्तुओं के साथ साथ एक पारिवारिक माहौल भी मिल रहा है जिसके फलस्वरूप उस वृद्धाश्रम में रहने वाले सभी सदस्य जिंदादिली के साथ अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
आज उनकी इस सोच के कारण शहर के कई वृद्ध लोग एवं जोड़े उस वृद्धाश्रम में खुशी खुशी रह रहे हैं। उनके घर वाले भी प्रसन्न है। उन्होंने आश्रम में रहने वालों के लिए कुछ नियम बनाये हैं ताकि कोई भी बुजुर्ग वहाँ पर रहने में और कोई भी परिवार अपने बुजुर्गों को वहां रखने में संकोच अथवा शर्मिंदगी महसूस ना करे।