माँ नहीं है देह नश्वर
मांँ नहीं है देह नश्वर
शीत ऋतु की उस ठिठुरती रात में,
संदेश आया।
जा मिली है पंच तत्वों में ,
सुगढ़ वह क्षीण काया।
किंतु मेरा मन ,कभी,
इस बात से सहमत नहीं है ।
ओसकी जब बूंद गिरती पंखुड़ी पर ,
और विकसित पुष्प को श्रृंगारती है,
मोतिया मुस्कान उसकी ,
हृदय को फिर गुदगुदाती।
दुख निराशा के समय में,
वह्नि रेखा सी हृदय में,
हो प्रकट वह,
प्रेरणा बन मार्ग दिखलाती मुझे।
ठंड की ठंडी ठिठुरती रात में वह,
धूप की मद्धिम तपिश सी ,
या कि बन कोमल रजाई सी ,
मुझे भर बाहुपाशों में,
मधुर उष्मा सरीखी।
वायु के शीतल झकोरों में बसी,
फूलों की खुशबू सी,
कभी मन को मनाती ।
और झंझावात में चट्टान जैसी,
बन अडिग आगे खड़ी है ।
और जब भी स्वप्न कोई देखती हूं,
बन गगन वह दीर्घतम विस्तार देती।
कौन कहता है कि माँँ थी देह नश्ववर,
वह अनश्वर प्यार का एहसास है ।
नहीं ,कोई काल
जिसको छीन सकता,
पंच तत्वों के नये फिर रूप लेकर,
हर कदम पर ,साथ में मेरे खड़ी है।
इंदु पाराशर