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7 Apr 2023 · 1 min read

जिन पांवों में जन्नत थी उन पांवों को भूल गए

सीमा पर जाकर हम हत्यारों को भी भूल गए
बढ़ती उम्र के साथ हम यारों को भी भूल गए

शहरों में जाकर अब हम गांवों को भी भूल गए
जिन पांवों में जन्नत थी उन पांवों को भूल गए

सात चबूतरे बैठे हमने कई रातें जहां काटी थी
सब एक साथ बैठे थे जब भी लाइट जाती थी

बीमार कोई पढ़ता मां सारी रात जगाती थी
कितनी कुर्बानी मां की कुर्बानी को भूल गए

✍️कवि दीपक सरल

1 Like · 533 Views
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