जिन पांवों में जन्नत थी उन पांवों को भूल गए
सीमा पर जाकर हम हत्यारों को भी भूल गए
बढ़ती उम्र के साथ हम यारों को भी भूल गए
शहरों में जाकर अब हम गांवों को भी भूल गए
जिन पांवों में जन्नत थी उन पांवों को भूल गए
सात चबूतरे बैठे हमने कई रातें जहां काटी थी
सब एक साथ बैठे थे जब भी लाइट जाती थी
बीमार कोई पढ़ता मां सारी रात जगाती थी
कितनी कुर्बानी मां की कुर्बानी को भूल गए
✍️कवि दीपक सरल