” सीता के दुख का कारण “
कभी सोचा है…….
सीता के रूप में मेरा व्यक्तित्व अनोखा था
उसका दूसरा पहलू कभी किसी ने नही देखा था ,
मैंने एक ही पहलू को दिखाया
आज्ञाकारी – सुशील पुत्री – बहू – पत्नी – भाभी – महारानी व माँ बन दिखाया ,
ऐसा नही की शरीर व मन से मैं कमज़ोर थीं
या किसी वादे – वचन से मैं बंधी थीं ,
बाल्यावस्था में धनुष उठा वनवास के लिये क़दम बढ़ा
अपनी शक्ति व दृढ़ता का इतिहास था गढ़ा ,
मैने तो जनम ही लिया था
जनक की पुत्री रूप में ,
राजा दशरथ की बहु रूप में
मर्यादापूरूषोत्तम की पत्नी रूप में ,
देवरों की भाभी रूप में
प्रजा की महारानी रूप में ,
लव- कुश की माँ के रूप में
रावण के संघारण के रूप में ,
मैने अपने इस रूप में
सर झुकाया हर रूप में ,
मेरे जी वन में दुखों की कमी नही थी
प्र
दुखों की तो मेरे जीवन में क़तारें खड़ीं थीं ,
पहला –
क्यों माँ की कोख की जगह धरती की कोख से जनम लेना पड़ा
मेरे जनम की प्रसव पीड़ा माँ की जगह धरती माँ को सहना पड़ा ?
दूसरा –
अगर मैने छुटपन में ही शिव का धनुष खेल – खेल में उठा लिया था
तो फिर क्यों अपने बराबर की ताक़त के पुरूष को वर रूप में चुन लिया था ?
तीसरा –
मैंने क्यों वनगमन के वक़्त पति के साथ जाना चुना
उर्मिला की तरह घर में रह कर क्यों नही अपनी शक्ति का जाल बुना ?
चौथा –
आखिर क्यों मेरा लोभ इतना प्रबल हो गया
की सोने का हिरण देख ह्रदय ललाईत हो गया ?
पाँचवा
पाँचवाँ –
ऐसा क्या था जो मैने लक्ष्मण रेखा को नकारा
उस कपटी रावण को बाहर जा भिक्षा देना स्वीकारा ?
छँटा –
जब मेरे लिये शिव का धनुष उठाना जितना आसान था
फिर क्यों छली रावण से हाथ छुड़ाना उतना कठिन था ?
सातवाँ –
मैं तो लक्ष्मी का अवतार थी फिर क्यों रही बंदी रावण की लंका में
कैसे सोच लिया कि आयेंगें प्रभु ले जायेगें बिना किसी शक़ की शंका में ?
आठवाँ –
मुझ नारायणी को सालों वृक्ष के नीचे बैठना पड़ेगा
और इस तपस्या के बदले मुझे अग्नि परिक्षा से गुज़रना पड़ेगा ?
नौवाँ –
क्यों अग्नि परिक्षा दे कर भी धोबी का प्रश्न मुझसे उपर रखना पड़ा
मुझ अकेली को अकेले जंगल भेज प्रभु को क्यों झूठा बनना पड़ा ?
दसवाँ –
इतना सब कुछ सह कर अपने पुत्रों को उनके पिता को सौंप कर
जाना क्यों पड़ा मुझे अपनी जननी का सीना चीर कर ?
वो इसलिये क्योंकि …….
अगर मैं ये सब ना करती
हर बात पर बस दुखी होती ,
तो धरती में समाते वक़्त
फिर किसी जनम मे अर्द्धांगिनी ना बन कर आने की
क़सम ना ले पाती ,
हर बार यूँ हीं आना पड़ता
इससे भी ज़्यादा
ना जाने और क्या – क्या सहना पड़ता ।।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 05/04/2020 )