सिसकियाँ जो स्याह कमरों को रुलाती हैं
सिसकियाँ जो स्याह कमरों को रुलाती हैं,
मुस्कराहट बन लोगों को उलझाती हैं।
धाराशाही होते हैं अश्क बस अपने हीं दामन में,
और सूखे नज़रों की तल्ख़ आँखों को भरमाती है।
हर धड़कन संग गूंजती है दर्द की सदा,
यूँ निःशब्द चीखें अपने हीं कानों को सहलाती हैं।
निष्प्राण कदम जो छुपाते हैं, खुद को दरवाजों की ओट में,
तपती धूप में काया को खुद के हीं झुलसाती हैं।
एक साथ की आस में भटकते हैं जो हाथ,
अपनी कलाई की कठोरता से, भ्रम के पर्दें गिराती हैं।
छाई रहती हैं यादें, हर क्षण मन के पटल पर,
पर कठोर संयम जज्बातों पर पहरे बखूबी लगाती हैं।
एक तूफ़ान सा है जो सबकुछ बिखेरे बैठा है,
और एक अस्तित्व है जो, तिनकों से खुद को बहलाती है।
विपरीत धारा ने चोटिल किया है, निरंकुशता से,
पर स्वाभिमान की ठंडक है जो, संतुष्टि की धारा में बहाती है।
बुरे वक़्त की स्याही ने बेवफाई पन्नों से कर डाली है,
पर ज़हन को नए शब्दों का मतलब भी तो ये सिखलाती है।