सिलसिला
, सिलसिला
बात मैं करता गया ,औ
सिल-सिला बढ़ता गया –
प्रीत का वह गीत था या ,
हृदय कुछ गुनता गया !
पास ही हो तुम हमारे ,
भास ये होता गया-
जो कि कल तक ना खिला,
वो सहज खिलता गया !
माधुरी धुन गूँज कर के ,
कान में कुछ कह गयी –
मन हुआ ना काम ऐसे ;
वक्त कम होता गया !
यूँ तो चादर तान दी है,
धुंध ने आकाश में –
पर तुम्हारा सदृश चेहरा,
जेह्न में दिखता गया !
वासना को है जगह कब,
हृदय की इस कोर में –
कामनाओं का पहर जब ,
भाव पर चढ़ता गया !
क्या जरूरत है हमें ये ,
दर्श दर्पण में करें –
आरसी तेरी आँख की में,
अक्स यूँ दिखता गया !
हाथ मेरे हाथ में जब,
साथ में आ जाय तो –
यूँ लगे संतोष का घर ,
चाँद पर बनता गया !
बंदिशों की भीड़ में तो ,
जिंदगी जीते सभी-
बंदिशों में भी साथ दो तो,
जन्म ये सकुशल गया !
उड़ रहे इन पंछियों ने ,
बात की है ये उभय –
चलो बता दें प्रेम कभी भी ,
दिल से किया न व्यर्थ गया !
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C/R स्वरूप दिनकर, आगरा
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