सिलसिला चलता रहे…
ख़्यालों के काफिले का सफ़र, कभी खत्म तो हो
मंज़िल ना सही, मगर इनका कोई रहगुज़र तो हो…
चश्म-ए-तर से जो, बहे जाते हैं अश्क
समंदर ना सही, मगर कोजा-ए-मुट्ठीभर तो हो…
रूठनें मनाने का सिलसिला, चलता रहे तमाम उम्र
रिश्ता-ए-मुकम्मल ना सही, अग़यार ही मयस्सर तो हो..
कैद-ए-हयात से, आजाद कर दे ए ‘खुदा’
नफ़स को अनफ़ास ना सही, मगर कहीं ठहर तो हो…
– ✍️ देवश्री पारीक ‘अर्पिता’
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