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8 Jul 2019 · 4 min read

सिर्फ जय किसान बोलने से कुछ नहीं होगा

गली से आवाज आई, चावल ले लो…दाल ले लो…! रुकिए भइया! कैसे दे रहे रहे हो? तीसरी मजिल से किसी बड़े घर की महिला की आवाज आई। वह आदमी अपनी साइकिल पर तीन बोरे चावल और हैंडिल पर दो थैलों में दाल लादे हुए खड़ा था। चावल 70 का एक किलो है और मसूर 90 रुपये की एक किलो है।
रुकिए मैं नीचे आती हूं…कहकर महिला नीचे आने लगी। वह साइकिल के साथ धूप में खड़ा रहा। वह कुछ देर बाद घर से बाहर आई। अरे भइया! तुम लोग भी न हमें खूब चूना लगाते हो, 70 रुपये किलो तो बहुत अच्छा चावल आता है और दाल भी महंगी है…सही भाव लगा लो।
बहनजी! इस से कम नहीं लगा पाऊंगा। आप जानती नहीं हैं कि चावल और दाल को पैदा होने में 100-120 दिन लगते हैं। एक किलो चावल पर 25-30 लीटर पानी लगता है। हर दिन डर रहता है कि मौसम की तरफ से कुछ अनहोनी न हो जाए। चार महीने पसीना बहाने के बाद भी कई बार फसल के वाजिब दाम नहीं मिल पाते। आप लोग अपनी फितरत के अनुसार किसान हितों की बात खूब करते हैं, पर कोई नहीं जानता कि हर साल दो लाख किसान असमय मर जाते हैं। हमारे पास आप जैसे बड़े मकान नहीं, ऐशो आराम के सामान नहीं। खुद ही निकल पड़े हैं इस लोहे के घोड़े पर लादकर।
सब जानती हूं भइया! पर वहां स्टोर में तो सस्ता मिलता है। वह अपनी बात को बड़ा करते हुए बोली। बहनजी! 10 रुपए वाला आलू चिप्स के रूप में 400 रुपये प्रति किलो, 70 रुपये प्रति किलो का चावल 110 से 150 रुपये किलो तक बिकता है… और हमारी 80 रुपये वाली मिर्च पीसकर डिब्बों में 300 से 400 रुपये प्रति किलो आपको सस्ती लगती है। इससे ज्यादा सस्ता नहीं दे सकेंगे जी। कहते हुए वह आगे बढ़ने लगा।
लगता है तुम टीवी खूब देखते हो…। बड़े घर की महिला अपनी फितरत के अनुसार बात कर रही थी। हां, कभी-कभी देखते हैं, अपना मजाक बनते हुए। खेती की जमीन पर कब्जे, पानी का गिरता स्तर, खाद-बीज के बढ़ते दाम और किसानों की बेइज्जती तो आप भी जानती होंगी। यहां कोई बड़ा आदमी करोड़ों रुपये लेकर भाग जाए तो कुछ नहीं। हम अदना सा कर्ज न चुका पाएं तो बैंक की दीवार पर नाम का नोटिस चस्पा कर दिया जाता है, सब के सामने बेइज्जत किया जाता है, कुर्की ऑर्डर आ जाता है। बहन चांदी तो बिचौलिये काट रहे हैं। लगता है, राजनीति भी जानते हो तुम। उस बड़े घर की महिला ने फिर एक सवाल दागा।
हम तो राजनीति का शिकार बनते हैं। जब इस देश की नदियां सूख जाएंगी, जंगल खत्म हो जाएंगे, जब खेतों पर इमारतें होंगी तब इंसान लड़ेगा रोटी के एक-एक टुकड़े के लिए। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी… फिर ये फैक्ट्रियां भूख मारने की दवाई बनाएंगी या एक-दूसरे को मारने की गोलियां, वह एक लगातार बोलता चला गया। बात तो पढे-लिखों जैसी कर रहे हो, कहां तक पढ़े हो भइया?
सरकारी कालेज से बीए किया हैं, पर हमारे लिए नौकरी नहीं है। हम अपनी मातृभाषा में पढे हैं, यहां तो सबको चटर-पटर अंग्रेजी चाहिए और ससुर गाली देंगे अपनी भाषा में। अनपढ़ करेंगे राज तो होगी ही मेहनतकश पर गाज। वह अपना पसीना पोंछते हुए बोला।
वोट तो तुम भी देते हो न…उस महिला ने फिर सवाल दागा। वोट भी हम देते हैं, जान भी हम देते हैं, भीड़ भी हम होते हैं और मरने को सेना में भी हम जाते हैं। आम आदमी बस साल में एक दिन नारा लगाता है…जय जवान-जय किसान और हो गए महान…वह बोला। धूप बहुत तेज थी सो सीधे सवाल किया, बहन जी! कितना लेना है?
पांच किलो चावल और दो किलो दाल। महिला दाल को गौर से देखते हुए बोली। ठीक है 10 रुपया कम दे देना कुल रकम में… और उसने साइकिल स्टेंड पर खड़ी कर दी। महिला उसका लाल तमतमाया हुआ चेहरा देखती रही। वह सामान तोलने में लग गया।
लो बहन जी, आपका सामान तौल दिया। महिला ने सामान लिया और बोली, ऊपर जाकर पैसे देती हूं भइया। कुछ देर बाद एक टोकरी उसने लटका दी जिसमें उसके पूरे रुपये थे। एक पानी की बोतल थी और लपेटकर कुछ और भी रखा हुआ था। उसने पैसे और पानी ले लिया। बहन आपने ज्यादा रुपये रख दिए हैं। अपने 10 रुपये नहीं काटे, वह कुछ तेज बोला।
पहले खाना ले लो…समझना मैंने रुपये ले लिये…तुमने बहन कहा है मुझे, इसलिए खाना तो जरूर खाना पड़ेगा। उसने वहीं बैठकर खाना खाने की शुरुआत कर दी थी। तीसरी मंजिल से कुछ टपका लेकिन तपती धूप में दिखा नहीं था। हथेलियों पर राहत की दो गरम बूंदें आत्मीयता के मोतियों से बिखर गई थीं। टोकरी धीरे-धीरे कर ऊपर चली गई थी और उसके हाथ ऊपर उठ गए थे, दुआ में एक अनजान बहन के लिए…। दोनों ने अपनी फितरत के अनुसार हक अदा कर दिया था।

@ अरशद रसूल

Language: Hindi
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