*** सिमटती जिंदगी और बिखरता पल…! ***
” आज क्यों, मैं स्वच्छंद नहीं…?
आज क्यों, मैं स्वतंत्र नहीं…?
टिक-टिक करते…
सरकती हुई ये पल…!
दिन-तारीख-महीनों के सीमाओं में…
गुजरता हुआ ये आज और कल…!
बोझ तले बढ़ते कदम…
पल-पल बढ़ती उम्मीदें…!
लक्ष्य पाने…
तरह-तरह के नई तरकीब…!
और समय सीमा में…
पूर्ण करने की जद्दोजहदें…!
बढ़ते आवश्यकता की तनाव…
मैं आगे, तू पीछे की टकराव…!
आज क्यों है…?
जीवन में इतनी दबाव…!
क्या हर चीज पा लेना ही…
सफल जिंदगी है…?
मेरे आगे-पीछे घूमे हर कोई…
क्या यही बंदगी है…?
एक सीमा में…
क्यों बंधी है ये जिंदगी…?
कुछ पैमाने लिए घेरों में…
क्यों बेबस है ये जिंदगी…?
कुछ नशा क्यों..?
ये तरक्की का…!
इतनी रफ्तार क्यों..?
ये अनमने सफर का…!
विचलित मन का ये दौर…
तृष्णा लिए मन का ये बौर…!
अचानक कुछ प्रश्न चित मन…
मुझे घेर लेता है…!
बड़ी-बड़ी मंजिल बनाया…
पर… क्यों सुकून नहीं…?
मखमली चादर की सेज…
पर… क्यों चैन की नींद नहीं…?
हर कोई इर्द-गिर्द है मेरे…
पास-पड़ोस रिश्ते-नाते…!
फिर क्यों…?
बिखरते ये जिंदगी का सफर…!
शायद…! ये विकास के..
अनियमित गति का असर है…!
बोझ तले दबे…
जिंदगी का सफर है…!
आज क्यों…? मैं स्वच्छंद नहीं…
आज क्यों…? मैं स्वतंत्र नहीं…!! ”
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* बी पी पटेल *
बिलासपुर ( छ.ग.)
१८/११/२०२३