सिख गई मै उडान भरना (कविता)
सिख गई मै अब उड़ान भरना/मंदीप
सिख गई मै अब उड़ान भरना आसमान में,
दिल नही करता अब निचे आने को।।
जीना तो मैने अभी सीखा है,
अब मन नही करता फिर से मारने को।।
भुलना देने का मन करता है वो आसियाना,
अब जो छुट गई दिल करता है जी बार कर जीने को।।
परिंदा समझ् कर कैद तो कर लिया,
जालिम कैद नही कर पाया मेरे मन को।।
कभी मै हार मानती फिर हौसला जुटाती,
साहस भरती फिर मन करता उड़ान भरने को।।
साथ मिल गया अब मुझे किसी परिंदे का,
अब मन नही करता निचे आने को।।
जालिम को क्या मालूम सीख ली है अब उड़ान परिंदे ने,
“मंदीप्”अब निचे नही आने देगा उस आज़द परिंदे को.