सिखों का बैसाखी पर्व
जिस बैसाखी पर्व को सिख लोग नाचते-गाते, तलवारबाजी का कौशल दिखाते, ढोल बजाते बड़ी धूमधाम और उत्साह के साथ मनाते हैं, इसी बैसाखी के दिन बालपन से ही युद्ध में निपुण, गुरु परम्परा का अन्त करके ‘श्री गुरुग्रन्थ साहिब’ को ही मानने का संदेश देने वाले एवं वीरतापूर्वक अत्याचारियों से लोहा लेने के लिए धर्म को दुष्टों का विनाश करने का एक मात्र साधन बताने वाले सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह ने ‘खालसा पंथ’ की स्थापना की। वैसाखी मेले के अवसर पर गुरुजी ने सारी सिख संगतों को मेले में एकत्रित होने का आदेश दिया। मेले में एक बड़ा पंडाल बनाकर दरवार लगाया गया। आनंदपुर में आयोजित इस उत्सव में गुरुजी का उपदेश सुनने हजारों संगतें उपस्थित हुई।
सिख संगतों से खचाखच भरे पंडाल के दरबार में सब लोग जब टकटकी लगाये गुरु गोविन्द सिंह को देख रहे थे, तभी गुरूजी ने अपने हाथ में नंगी तलवार लेकर ऊँची आवाज में कहा- ‘‘है कोई ऐसा सिख जो हमें अपना शीश भेंट कर सके।’
यह सुनकर सभा में एकत्रित समस्त जन समूह में सन्नाटा छा गया। गुरुजी ने गर्जना-भरे स्वर में इसी वाक्य को तीन बार दुहराया। वाक्य के अन्तिम बार दुहराने के बाद लाहौर के भाई दयाराम उठ खड़े हुये और उन्होंने बड़े ही दृढ़ स्वर में कहा-‘‘गुरूजी आपकी सेवा में मेरा शीश हाजिर है, कृपया भेंट स्वीकार करें।’’
यह सुनकर गुरुजी दयाराम को दरबार के एक कोने बने तम्बू में ले गये और कुछ देर बाद खून से सनी तलवार लेकर दरबार में आ गये। उन्होंने फिर एक और सिख का शीश भेंट करने की माँग दुहरायी। इस बार दिल्ली के धर्मदास ने अपना शीश देने के बात कही। गुरुजी धर्मदास को भी तम्बू में ले गये और पुनः रक्त भीगी तलवार लेकर दरबार में उपस्थित हुये। उन्होंने फिर यही वाक्य दोहराया कि ‘‘अब कौन अपना शीश भेंट करने को तैयार है।’’
गुरुजी की बात सुनकर इस बार समस्त सिख संगतों में भय व्याप्त हो गया और दरबार से लोगों ने एक-एक कर खिसकना शुरू कर दिया। तभी द्वारका के मोहकम चन्द ने उठकर कहा- ‘गुरूजी मेरा शीश आपके चरणों में अर्पित है।’’
गुरुजी मोहकम चन्द को भी तम्बू में ले गये और कुछ देर बाद रक्त से सनी तलवार को लेकर दरबार में हाजिर होकर बोले-‘‘और कौन अपना शीश दे सकता है।“
चौथी बार जगन्नाथपुरी के साहब सिंह और पांचवी बार हिम्मत सिंह ने गुरुजी को अपने शीश भेंट किये। तदोपरांत गुरूजी दरबार में आये और तलवार म्यान में रखकर सिंहासन पर बैठ गये। तम्बू में जिन पाँच सिखों को शीश भेंट कराने के लिए ले जाया गया था, वे जब नयी पोशाक पहनकर तम्बू से बाहर निकलकर दरबार में उपस्थित हुये तो दरबार में बैठे लोगों के आश्चर्य की कोई सीमा न रही।
गुरुजी ने पांचों सिखों को अपने पास बिठाया और सिख संगत के बीच घोषणा की कि जिन पाँच जाँबाज सिखों ने आज शीश भेंट किये हैं आज से ये पाँचों मेरे ही स्वरूप हैं। ये आज से ‘पंच प्यारे’ कहलायेंगे। जिस स्थान पर यह समारोह हुआ उस स्थान का नाम केसरगढ़ रख दिया गया।
गुरुजी ने ‘चरण पाहुल’ को ‘खण्डे के अमृत’ नाम देकर ‘पंच प्यारों’ के साथ-साथ अनेक सिखों को अमृतपान कराकर उनके नाम के पीछे ‘सिंह’ जोड़ने को आदेश दिया और स्वयं अपना नाम भी गुरु गोविन्द राय के स्थान पर गुरू गोविन्द सिंह रखा और गुरूजी ने कहा कि अमृतपान करके ही सिख बना जा सकता है। तभी से कोई पांच सिख जो मर्यादा के पक्के हों, ‘गुरू ग्रन्थ साहिब’ के सम्मुख अमृत तैयार करते हैं।
बैसाखी का त्योहार खालसा के स्थापना दिवस पर पूरे सिख समुदाय में बड़ी धूमधाम से मनाने का प्रचलन तभी से है। इस अवसर पर खालसा पंथ में आस्था व्यक्त की जाती है।
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रमेशराज, 15/109, ईसा नगर, अलीगढ़