सिकुड़ती जिन्दगी
ज्यों ज्यों
बढने लगी
रिश्तों में
सिकुड़न
होते गये दूर
हम
अपनों से
सिकुड़न
जब दूर
होने लगी
चादर में
अदालत तलक
जाने लगे
हम दो
देख कर
सिलवट
बिस्तर की
होता है
सुकुन
सोयी थी
वह भरपूर
रातभर
सिकुड़न
सिलवट की
है कहनी
अजीब
बता देती है
पूरा हाल
जीवन और
जीवनसाथी की
रखो दूर
सिकुड़न को
रिश्तों से दूर
रहें आपस में
सिकुड़न
सिलवटों
को समेटे हुए
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल