सिंधु का इंटरव्यू
सागर किनारे
समुद रसागर, पयोधि, उदधि, पारावार, नदीश, जलधि, वारिधि, नीरनिधि, अर्णव, जलधाम, असीम अपार नील वर्ण की है अद्भुत जिसकी पहचान। पहुंची मैं उसके किनारे कुछ जानने के लिए मन में अरमान।
एक दिन ढलते सूरज की खामोशी को बांटने मैं पहुंची समुद्र किनारे,देखा मैंने वहां जो दृश्य, लहरों के बीच खेल रहे थे प्रेमी युगल अति मतवारे।
सूरज खुश था वो जा रहा था समुद्र के उस पार अपने गांव, जहां रोज़ ही भोर प्रातः से बाट जोहती पत्नी छांव।
मैंने पूछा फिर समुद्र से कि सूर्य क्यों होता सिंदुरी जैसे ही है सांझ ढले? क्या समाजाता है वो बीच तुम्हारे हृदय नीले। क्या वह तुम्हारी श्वेत लहरों की अट्ठखेलियों से शर्माता है?
बोला फिर मुझसे वो सिंधु जाए भानु तो इंदु आए,
अपनी चांदनी की शीतलता मुझपे है वो बिखराए।
अच्छा! हे ज्ञानी समुद्र तेरा ज्ञान भी है तुझसा गहरा,
वो तनिक ठहरा और रुककर बोला।क्या तुम्हें कुछ जानना है?
मैं बोली उस पार उमड़ती लहरों का है गांव किधर,
क्या उनका आलिंगन करता है नभ नित झुक झुक कर?
कितनी लहरें बनती मिटती, किनारे से जा टकराकर,
कितने मोती माणिक तुममें रहते हैं कितने जलचर?
क्यों नीले वेग भरी लहरें यूं उठती गिरती हैं, क्या प्रेमी नभ की बातें करके उल्लासित हो हंसती हैं?
आते कितने प्रेमी युगल हैं ए सागर तेरे किनारे पर, क्यों पग धोकर उन युगलों के तुझमें समाती पुनः लहरें?
क्यों सब प्रेमी आकर प्यार जताते,तेरी रेत में दिल बनाकर, क्या इसलिए लौट जाती लहरें तुझमें उनसे शरमाकर?
तू भी हृदय बनाले नीलम अपार सिंधु के जैसा ही,
बीती बातें मिटा दे हृदय से, कष्ट सहा हो जैसा भी।
नीलम शर्मा