सिंदूर
सुन,
नहीं चाहती कभी निकलना जन्म जन्मान्तर तक मैं प्रिय।
बस डूबी रहना चाहती हूँ ,हैं जो सिन्दूरी से अहसास हिय।
अद्भुत सा स्पंदन और सिहरन सी तन मन में है फैलती।
यादों में तेरी मैं जागूं, रहूं बावरी सी नित टहलती।
सुन,
होने का ख्याल तेरे,हया भर देता रोम रोम में
देखूं स्वप्न जागी अंखियों से नीलम अंबर व्योम में।
सिंदूरी श्रृंगार यह नारीत्व का निर्मलता का आभास है।
किसी अनजान को अपना बना लेने का सुखद एहसास है।
अहा ! कितना प्यारा है ,भरता जो पाहन में भी प्राण
मेरे चेहरे पर निखार देता संतुष्टि के सौन्दर्य का निर्माण।
सुन,
डुबो देता है प्रेम सुख के अथाह गहरे सागर में
होता है प्रतीत मानों मधु भरा है स्नेह की गागर में।
खुशियों का ये अंदाज करता हृदय को ओत प्रोत है
जी रही हूं यादों में तेरी,अब यादें जीवन स्त्रोत हैं।
भर आता है नीलम जब कभी भी हिया मेरा
रोकर गुबार निकाल ती रख चित्र करीब पिया तेरा।
नीलम शर्मा