साहिल पर, कस्तियां रोती है
दोस्तों,
एक ताजा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों की नज़र,,,,!!!
ग़ज़ल
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कहीं पर सिसकियां रोती है,
कहीं पर,, हिचकियां रोती है।
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बेरहम हो गया जमाना देखो,
अब तो यहां, बच्चियां रोती है।
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बिन सैलानी, है समन्दर सुना,
साहिल पर, कस्तियां रोती है।
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गली-गली,हर राहें सुनी-सुनी,
मौजो के बिन मस्तियां रोती है।
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चारो तरफ जहां नफरत फैली,
भाईचारे बिन बस्तियां रोती है।
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खाने वाला,जहां कोई न “जैदि”
वहां दौलतमंद हस्तियां रोती है।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”