साहित्य साधकों के समक्ष चुनौतियाँ
साहित्य साधना ईश्वर के निकट ले जाने का एक सुगम मार्ग है, कारण एक सच्चा साहित्य साधक बिना कोई रागद्वेष पाले, प्रतिस्पर्धा का भाव मन में रखे, सम भाव से कलम के द्वारा मन में उत्पन्न उद्गारों को कागज पर उतारने का कार्य करता है। कलमकार की कलम उस भावना को अभिव्यक्त कर पाई या नहीं इसका आंकलन पाठकगण करते हैं। एक कलमकार अपनी बात को पाठकों के मन तक पहुँचाने में तभी सफल हो सकता है जबकि वह रचना तत्कालिन देश, काल एवं परिस्थितियों के संदर्भ में प्रासंगिक हो। रचना सीधी, सरल अन्दाज में व्यक्त की गई हो अर्थात जिस भाव से वह लिखी जा रही हो उसका पाठक भी वही अर्थ लगावें। रचना में छल, अतिश्योक्ति न हो एवं कलमकार का मन निश्छल व पवित्र हो। इसका अन्दाजा पाठक रचना को पढ़ते समय आसानी से लगा लेता है।
वस्तुतः तमाम कसौटियों पर कसने के लिए एक साहित्य साधक को कठोर साधना करनी ही पड़ती है।उसे रचना के पात्रों के स्थान पर स्वंय को रखकर लेखनी चलानी होती है। यह कार्य बेहद जटिल है, जहाँ प्रसव पीड़ा की भाँति दर्द का सामना करना पड़ता है, वहीं सुखानुभूति से मन में उत्पन्न उल्लास का आनन्द भी प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक माँ प्रसव पीड़ा से छटपटाती है, महसूस होता है कि प्राण अब निकले, तब निकले लेकिन मन के कोने में एक माँ होने का भी सुख कहीं न कहीं छुपा होता है, जिससे प्राप्त सुखानुभूति असहनीय दर्द को भी सहन करने की ताकत दे देती है। ठीक इसी प्रकार साहित्य सेवा में रत साधक जब अपनी रचना के पात्रों का वर्णन कर रहा होता है, लगता है मानो वह साक्षात् स्वंय ही सामने आ खड़ा हो गया हो। पात्र के दुःख-दर्द, खुशी, संघर्ष आदि भावों के साथ कलमकार के मन में भी वेदना, करुणा, प्रसन्नता के भाव उत्पन्न हो जाते हैं और अनायास ही आँखों से कभी खुशी तो कभी दर्द की अश्रुधारा बह निकलती है। कई बार शब्द नहीं मिल पाते और वाक्य रचना नहीं हो पाती, यह वेदना अत्यन्त कष्टदायी होती है। जो वह चाहता है वैसा बन नहीं पाता, वह क्षण तो एक कलमकार के लिए सचमुच असहनीय वेदना भरा होता है जब कई बार अपने ही हाथों से सृजित रचना के एक वृहद भाग या खण्ड को उन्हीं हाथों से काटना पड़ता है जिनको कई- कई रातों को जागकर लिखा गया होता है, लेकिन रचना को परिष्कृत और वास्तविक रुप में प्रस्तुत करने के लिए यह भी आवश्यक हो जाता है।
एक साहित्य साधक को सामाजिक और पारिवारिक जीवन जीते हुए अपनी कलम के साथ न्याय करना होता है। जब वह सामाजिक, पारिवारिक कार्यों को सम्पादित कर रहा होता है वहाँ उसके आस-पास उसके अपने खड़े रहते हैं, कोई काम बिगड़ जाए, समय पर पूरा न हो सके तो उसे अन्य लोग पूरा करने के लिये हाथ आगे बढ़ाते हैं। मन में उत्पन्न कोई दुराशय, संशय होने पर अन्य से चर्चा कर रास्ता सुगम हो जाता है। लेकिन एक लेखक जब कलम के साथ चलता है वहाँ वह नितान्त अकेला होता है। रचना में कोई दोष आ जाए, उसके मनोनुकूल गढ़ने में न आ पा रही हो, वह पात्र से जो कुछ कहलाना चाह रहा हो, पात्र उसे कहने को तत्पर ही न हो। कुछ पात्रों से एक-एक शब्द, वाक्य कहलाने के लिए महीनों का इंतजार करना पड़ता है, तो कई बार एक साथ अनेकों पात्र उसकी अंगुली पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए नजर आते हैं, उसकी दुविधा यही होती है कि वह पहले किसके साथ जाए, ऐसी अनेकों दुविधाओं और वेदनाओं को एक कलमकार अकेला ही झेलता है।
यह सच है कि साहित्य समाज का दर्पण है, तो साहित्यकार समाज का पथ-प्रदर्शक। आज के दौर में जब अंतरिक्ष पर घर बसाने की तैयारी चल रही है, चन्द सेकेण्ड में साथ समन्दर पार बैठे व्यक्ति से वार्ता संभव हो चुकी है। वहीं कहीं ऐसा नहीं लगता कि इंसान आज के दौर में संकुचित मानसिकता और दृष्टिकोण का हो चुका है। लगता है कि उसकी दुनिया स्वयं तक सिमट कर रह गई है। यहाँ तक कि घर, ऑफिस, शॉपिंग मॉल, भरे बाजार में भी उसे नितांत तन्हा देखा जा सकता है। आज घन्टों बैठे व्यक्ति मोबाईल पर व्यस्त है। चैटिंग, व्हाट्सअप मैसेज, फेसबुक, ट्विटर इत्यादि के साथ दिन का आरंभ होता है, जो रात को बिस्तर में जाने तक जारी रहता है। यहाँ तक कि किसी अपने को निमंत्रण देने के लिए भी निमंत्रण कार्ड व्हाट्सअप के जरिये मैसेज किये जाने लगे हैं। वर्तमान दौर में भले ही इसे विकसित समाज की पहचान समझ लिया जाए लेकिन यह प्रवृति एक सुखी समाज के लिए अच्छी नहीं कही जा सकती, क्योंकि हम जहाँ रह रहे हैं वहाँ नीरसता नहीं भावनाओं की आवश्यता है। हम जिनके साथ रह रहे हैं वहाँ यह अहसास कराया जाना आवश्यक है कि हाँ हम आपके अपने हैं, सुख-दुख के सहभागी हैं।
साहित्यकारों के समक्ष यही बड़ी चुनौती है कि कैसे सामाजिक सरोकार उत्पन्न किए जाऐं। समाज में जो पारस्परिक रिश्तों में खटास उत्पन्न हो चुकी है, उसे कैसे दूर किया जाए। आजादी के पहले साहित्यकारों के समक्ष चुनौती थी देश को गुलामी की दासता से कैसे मुक्त कराया जाए, उसी अनुरुप रचनाऐं सामने आयी। इसी प्रकार जमींदारों, साहूकारों के अत्याचारों को दर्शानें के लिए साहित्य रचा गया। बाद के वर्षों में महिला अत्याचारों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया गया। आज भी कलमकार इस विषय पर अपनी चिन्ता दर्शाते हुए समाज को जाग्रत करने का कार्य बखूबी कर रहें हैं। आजादी के बाद देश में मशीनीकरण, बेरोजगारी, गरीबी, समाज में असमानता जैसे उद्देश्य को केन्द्र में रखकर साहित्य रचना की गई। लेकिन आज तो व्यक्ति स्वंय से संघर्ष करता हुआ दिखाई दे रहा है। यह संघर्ष केवल निर्धन व्यक्ति का ही नहीं हैं अव्वल तो यह है कि धनिक परिवारों को भी यह दंश झेलना पड़ रहा है। सब कुछ होते हुए भी कुछ न होने का भाव, भीड़ से घिरे रहते हुए भी स्वंय को अकेला होने का दर्द स्पष्ट तौर पर चेहरे पर देखा जा सकता है। बाहर से सब कुछ ठीक ठाक का स्वांग भले ही कर ले लेकिन अन्दर से हताशा और निराशा में डूबा हुआ है। ऐसे समय में साहित्य साधकों के समक्ष यह चुनौती है कि किस तरह समाज, परिवार में रिश्तों में आ रही खटास को दूर किया जाए। यही हाल रहा तो आने वाले समय में रिश्तों से मोह खत्म सा हो जायेगा। शुरुआत हो चुकी है, यदा-कदा सुनने व पढ़ने में आ ही जाता है कि सेवानिवृति के बाद वृद्ध माँ-बाप के साथ वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर, चार योग्य बेटों की वृद्ध माँ रोटी के टुकड़े के लिए पड़ौसियों पर आश्रित, चार माह तक माँ की मृत देह विदेश गए बेटे के इंतजार में बन्द फ्लेट में पड़ी रही। परदेश गये बेटे की एक झलक पाने के इंतजार में बाप ने अंतिम सांस ली। माँ को लिफ्ट से नीचे गिराकर मार दिया। ऐसे अनेकों सच्चाईयाँ है जो दिल दहलाने वाली है।
आज यदि समाज के उत्थान और विकास की बात करनी हो तो आवश्यक है कि साहित्य साधक यह पहल करें। रिश्तों के मध्य जो दूरियाँ आ चुकी है, लोग भावनाशून्य, संवेदनहीन हो रहें है, उनको सही मार्ग पर लाने का कार्य साहित्यकार ही कर सकते हैं। हो सकता है यह कार्य इतना आसान न हो, कारण अच्छे साहित्य को आसानी से नहीं पचाया जा सकता। आज पाठकों की निरन्तर कमी होती जा रही है। आज हम एक ऐसे दौर में जी रहें है, जहाँ अच्छी किताबों के बजाए मोबाईल हेण्डसैट, कपड़ों या अन्य मौज-शौक पर अधिकांश बजट खर्च कर दिया जा रहा है। जो पाठक है भी वह छोटे आकार के कहानी, कविता, उपन्यास, आलेख पसंद करने लगे हैं। लेकिन कुछ भी हों चुनौतियाँ और भी आयेंगी। वाग्देवी के पुत्रों को कलम हाथ में लेकर अंधेरे में भी चलते रहना है, सुबह जरुर आएगी।
डॉ0 सूरज सिंह नेगी
लेखक, उपन्यासकार एवं कहानीकार
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