साहित्य में प्रेम–अंकन के कुछ दलित प्रसंग / MUSAFIR BAITHA
रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है, यह एक अत्यंत ही प्रचलित एवं सर्वमान्य धारणा है। पर प्रेम की अनिवार्यता भी सहज मनुष्य जीवन के लिए उतनी ही है। अत्याचारी, व्यभिचारी, घोर असामाजिक कहा जाने वाला व्यक्ति तक बिना प्रेम के नहीं जी सकता। उसके व्यक्तित्व का असामाजिक चरित्र आरोपित ही होना चाहिए, स्वाभाविक नहीं।
प्रेम स्वाभाविक या कि प्राकृतिक वृत्ति है। इस संसार में शायद, मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसे चर-अचर दोनों से प्रेम हो जाता है। मगर, विस्मयकारी एवं चिंताजनक यह है कि मनुष्य-मनुष्य में ही जाति, वंश, नस्ल एवं संप्रदाय जन्य विभाजक भेद गहरे हैं।
प्रेम प्रसंग पर साहित्य अटा पड़ा है जो कि स्वाभाविक है। पर जीवन की हमारी राजनीति प्रेम के मामले में भी साहित्य में घटित होती है। प्रेम का जब रचना में अंकन होता है तो हम अपनी राजनीति भी उसमें उलीच कर, फेंट कर जीवन में सर्वाधिक उद्धृत धर्मग्रन्थों महाभारत, रामायण एवं रामचरितमानस में तो प्रेम पर घृणा एवं तकरार का मानवीय स्वभाव ही प्रमुखता से चित्रण पाता है। इन कथाओं में जहाँ देवी-देवताओं, ईश्वरों तक की युद्ध में भागीदारी है, आश्चर्य होता है कि ऐसे महत, महान, दैवी चरित्रों के होते हुए भी क्यों प्रेम बार-बार हारता है और घृणा व उन्माद बार- बार जीतता है? आधुनिक साहित्य तक में कई बार प्रेम को लेकर कविता, कहानी तथा अन्यान्य रचनाओं में लेखक अपनी जातीय एवं सांप्रदायिक सोच फेंटकर कर मानवता एवं स्वाभाविकता के विरोध में परोस बैठते हैं। कथाकार उषाकिरण खान ने कवि हीरा डोम को आधार बनाकर एक बड़ा ही भद्दा नाटक रचा है जिसमें ब्राह्मणवाद एवं द्विजवाद को पनाह दी गयी है। कपोलकल्पित इस ड्रामे में वे हीरा डोम का प्यार दलित नौकरानी से ही करवाती हैं किसी द्विज से नहीं, और, ईश्वरीय कृपा एवं छठ पूजा की महिमा के नाना दृश्य-विधान रच डालती हैं। जबकि हीरा डोम महज अपनी सेलेब्रिटी कविता ‘अछूत की शिकायत’ के लिए ही जाने जाते हैं जिसमें अनेक देवताओं सहित कथित ईश्वर की खबर ली गयी है। अनेक द्विज लेखकों के यहाँ ऐसे छल व ऐसी बेईमानियाँ चलती पाई गयी हैं। अपने ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ उपन्यास में अमृतलाल नगर ने सवर्ण नायिका ‘निर्गुनिया” जो कि जन्म से ब्राह्मण है, की एक मेहतर (दलित) से प्रेम एवं विवाह तो कारवाया जाता है लेकिन मेहतरत्व को अंततः वह नहीं पचा पाती है। मन से वह मेहतर नहीं हो पाती है। जबकि उसके मुंह से दलितत्व को महिमामंडित करने वाली पंक्ति कहलवाया गयी है कि ‘बड़ी तपस्या का काम है मेहतर बनना’।
‘अपने अपने पिंजरे’ के प्रथम भाग में आत्मकथाकार के प्रेम-प्रसंग में असफल होकर बम्बई (मुम्बई) भागने का संदर्भ है।
प्रेमकरण की एक लम्बी कविता है जो दलित कविता की श्रेणी में आनी चाहिए। ‘आरक्षण गली अति सांकरी’, जिसमें ओबीसी कवि ने एक सवर्ण कन्या से प्रेम तो किया है, उसे पत्नी भी बना लिया है पर युवती को पिछड़ों को मिले संवैधानिक आरक्षण से खासा परेशान होते दिखाया गया है। पति को मिले आरक्षण लाभ को भी वह पचा नहीं पा रही।
प्रेमचंद की अनन्य कृति ‘गोदान’ में ओबीसी नायक गोबर का दलित कन्या ‘ झुनिया’ से प्रेम विवाह है तो पंडित मातादीन के एक दलित कन्या…के प्रेमपाश में पड़ने एवं जाति-समाज के दबाव में शादी से मुकरने पर गाँव के चमार समाज द्वारा पंडित के मुंह में हड्डी ठूंस कर उसकी जात बिगाड़ने का चित्र है। ये प्रसंग दलित चेतना एवं समर्थन के बनते हैं।
सूरजपाल चौहान की एवं ‘संतप्त’ में एक घटने का बड़ा ही हिम्मती चित्रण मिलता है। वे अपने सगे भतीजे से अपनी पत्नी का बड़े ही धैर्य एवं व्यापकता से वर्णन करते हुए बताते हैं कि कैसे जिस भतीजे को पाला-पोसा उसने ऐसा कृत्य किया। परिणति यह होती है कि आत्मकथाकार का भतीजा अपनी हमउम्र पत्नी को छोड़ अपनी उम्र से लगभग दुगुनी उम्र की चाची से विधिवत विवाह भी कर बैठता है।
प्रख्यात दलित आलोचक डा. धर्मवीर ने तो पतियों एवं पत्नियों के अवैध प्रेम सम्बन्धों को अपनी जार-आलोचना के जरिये बड़े विस्तार से लिखा है, कई कई पुस्तकें इस विषय पर उनने लिख मारी हैं। पत्नी के विवाहेतर प्रेम से आहत आलोचक ने मानो औरत जात को ही बदचलन और जार ठहरा दिया है। वे दलित एवं द्विज, तमाम भारतीय विवाहित स्त्रियों को जार यानी कि ‘अवैध’ प्रेम सम्बन्ध रखने वाला मानते हैं। उन्होंने इस विषय पर एक विशालकाय आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िये’ लिख डाला है। डा. धर्मवीर का स्त्री एवं प्रेमचंद पर पूरा लेखन ही एकांगी है, उनके विरोध में है।