साहित्य दर्पण नही
साहित्य किसे कहते है ?
जैसे प्रश्न बेमानी है। ठीक उसी तरह से जैसे समन्दर किसे कहते है आदि आदि।
साहित्य क्या है ? क्यो है ? जैसे प्रश्न मिलाकर हम इसे समझने की कोशिश करते है।
साहित्य एक आशा है तो साहित्य एक निराशा भी है। साहित्य विचारों का एक संकलित पुंज है जो लिखित या मौखिक हो सकता है।इसका व्यवहारिक जीवन से बहुत ज्यादा वास्ता नहीं होता।हाँ पूर्णत विलग भी नही होता।साहित्य का सम्बंध दो तिहाई से ज्यादा मानसिक होता है शारीरिक गतिविधि नहीं। साहित्य रचन सदा से अतिरेक या व्यतिरेक की वजह से होता है। इसमें जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि का ही ज्यादा किरदार होता है,वास्तविकता का नहीं। सामान्यतौर पर साहित्य लेखकों ने आशावादी ,ऊर्जामय साहित्य सृजन नही किया ,अधिकतर निराशावादी ,बेचारगी वाले चिंतन को महत्व देकर जगत को नकारात्मक बनाने की कोशिश की है। जबकि वास्तविकता में जगत नकारात्मक नही है। परन्तु ऊर्जावान ,कर्मठ लोगो का साहित्य लेखन की तरफ कम ही रुझान रहा है। अब जाकर साहित्य ने करवट लेना प्रारम्भ किया हर एवं प्रेमचंद के नकारात्मक पक्षो को महिमामण्डित कर तालियां बजवाने जैसे साहित्य को छोड़ने की दिशा में अग्रसर है। रामधारीसिंह दिनकर ,मैथलीशरण गुप्त जैसी राह पर चलने लगा है। प्रसाद ,प्रेमचंद जैसे साहित्य से छवि ऐसी बन गई थी समाज की ।गोया समाज मे कोई अच्छाई बची ही न थी। सब तरफ शोषण, भर्ष्ट ,जुल्म ही जुल्म रहे हो। जबकि राजा या सामन्त सब जुल्मी नही होते थे।। आज भी पत्रकार या साहित्यकार जुल्म,गरीब आदि नैराश्य घटकों पर कलम चलाने में बड़ा गर्व महसूस करते है। और फिर समाज का दर्पण बताते आये है साहित्य को रट्टू लेखक। जबकि दर्पण सिर्फ उस हिस्से को बताता है जिसे दिखाया जाता है। जबकि सच तो पीठ भी है जो दर्पण में नही दिखती है,सिर्फ फ्रंट देखकर सम्पूर्ण नही कही जा सकती। हताश प्रेमी गीत लिखकर यूँ सिध्द कर देता है जैसे जगत में सब टूटे दिल के पड़े हो। जो रात दिन मेहनत कर निकम्मे लोगो को पाल रहे है उन्हें कहाँ फुर्सत लेखन जैसे फिजूल कार्य की। अतः उनके भावो का साहित्य नही आ पाता। अस्तु….
कलम घिसाई
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