साहित्य के रंगों से रोशन हुई सिनेमा की दुनिया – आलेख
साहित्य, समाज का पथ प्रदर्शक होता है , उत्कृष्ट सृजन, स्वस्थ सामाजिक परिवेश का निर्माण करता है । साहित्य का उद्देश्य जनमानस में नवचेतना का संचार करना है और सिनेमा, वर्तमान परिस्थितियों के चित्रांकन का सशक्त माध्यम है । फिल्मकार, अपने सिनेमा के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं वर्जनाओं को अभिव्यक्त कर , जनसाधारण को अपनी विचारधारा से अवगत करा सकता है । साहित्यकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती उत्कृष्ट और सार्थक सृजन की होती है ताकि उसके द्वारा रचित साहित्यिक कृति , मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण हो एवं शोषण का प्रतिकार करने का सामर्थ्य रखती हो । हिंदी सिनेमा, प्रारंभ से ही विचारों का संवाहक रहा है जिसने समय समय पर ऐसी सामाजिक संदेश देने वाली फ़िल्में, समाज को दी है जो मील का पत्थर सिद्ध हुई है । हिंदी साहित्य के दैदीप्यमान नक्षत्र फणीश्वरनाथ रेणु के सुप्रसिद्ध उपन्यास मारे गए गुलफाम पर बासु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम फिल्म का निर्माण किया जो काफी रोचक प्रयोग रहा । सिनेमा की सार्थकता, साहित्य के स्तर पर निर्भर करती है । मुंशी प्रेमचंद की कहानी पर मोहन भवनानी ने मजदूर नामक फिल्म का निर्माण किया । साहित्य और सिनेमा एक दूसरे के पूरक हैं , दोनों एक दूजे के बिन अस्तित्वहीन है । सिनेमा को हमेशा से अर्थपूर्ण कहानियों की प्रतीक्षा रही है । साहिब बीवी और गुलाम, भी हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर सिद्ध हुई वो भी विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित थी जिसे गुरूदत साहब और अबरार अस्वी ने कलात्मक स्वरूप प्रदान कर दिया । अमृता प्रीतम का उपन्यास पिंजर , बंटवारे की विभीषिका का दारूण चित्रण प्रस्तुत करता है जिसे निर्देशक चंद्र प्रकाश द्विवेदी ने बेहतरीन तरीके से रुपहले पर्दे पर पेश किया । सिनेमा, साहित्य के बिना अपेक्षित उन्नति नहीं कर सकता । विशाल भारद्वाज ,जो अंग्रेजी उपन्यास पर फिल्म बनाने में माहिर है उन्होंने शेक्सपियर के नाटक ओथेलो पर ओमकारा जैसी फिल्म बनाई । साहित्य,स्वांत सुखाय के लिए प्रतिबद्ध है परंतु सिनेमा सामाजिक सोच का प्रतिबिंब है जो समाज के सच को भी उजागर करने का सामर्थ्य रखता है । साहित्य को पढ़ने वाले उतने नहीं है जितने सिनेमा को देखने वाले । चेतन भगत के उपन्यास फाइव प्वाइंट समवन को सिर्फ उन्होंने पढ़ा है जो अंग्रेजी जानते हैं लेकिन इस तरह के विचारोन्मुखी साहित्य पर जब थ्री इडियटस जैसे सिनेमा का सृजन होता है तो वह ऐतिहासिक बन सामाजिक चेतना का शांतिदूत बन जाता है । उपन्यासकार भीष्म साहनी के उपन्यास पर आधारित ” तमस ” धारावाहिक ने भी तीन दशक पूर्व दूरदर्शन पर सुर्खियां बटोरी थी । रस्किन बांड की कहानी सुज़ानाज सेवन हस्बैंड पर प्रख्यात निर्देशक विशाल भारद्वाज ने सात खून माफ़ फ़िल्म का निर्माण किया ।
साहित्य, समाज का दर्पण है तो सिनेमा , समाज की आवश्यकता । सिनेमा और साहित्य, स्वस्थ समाज के आधार स्तम्भ है । आर के नारायण के उपन्यास पर आधारित गाइड फिल्म भी चर्चित फिल्म रही है अपने दौर की ।
सिनेमा के पर्दे पर चमक, साहित्य की स्याही ही ला सकती है । हिंदी साहित्य प्रारंभ से ही फ़िल्मकारों की पसंद रहा है । देवकी नंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता संतति पर आधारित लोकप्रिय धारावाहिक चंद्रकांता, नब्बे के दशक में दर्शकों की पहली पसंद था । साहित्य और सिनेमा ,शरीर और आत्मा के समान है ।।
©डॉक्टर वासिफ़ काज़ी ,इंदौर
©काज़ीकीक़लम
【 शायर एवं स्तंभकार 】