“साहित्य और बदलता परिवेश”
रचनाकार स्वयं पाठक हैं !
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उलझन में है जिंदगी,
सुलह नहीं हो पाती है,
काम का है बोझ बहुत,
इसलिए उभर नहीं पाती है,
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मैग्गी नूडल का है जमाना,
खिंचड़ी परोस दी है जाती,
बात उम्र की हो,
बूढ़ो को कहां है भाती,
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बात बचपन की सबको है मोहती ,
युग है अंग्रेजी और साईंस का,
हिंदी हर किसी को,
लिखनी पढ़नी नहीं है आती,
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चिट्ठी पत्री सब हुए बंद,
अब सीधे ई-मेल है आती जाती,
नहीं रहे बही और खाते,
सीधे पी.डी.एफ टैली है होती,
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रचनाकार स्वयं पाठक हैं,
इसलिए
साहित्य में तेजी आ नहीं सकती !