*साहित्यिक बाज़ार*
मैं कुछ कहानियों को लिए बाजार में बैठा हूं। सस्ती, टिकाऊ, रसभरी, मज़ेदार कहानियाँ। उनपर भिनभिनाती मख्खियों को अपने अंगोछे से बार बार उड़ाता हुं। भिन्न से उड़ कर फिर आ बैठती हैं। सड़क के उस पार काफी चमक धमक है। एक नया मॉल खुला है उधर। सुना है काफी हैरतअंगेज़ कहानियाँ आई हैं बिकने को। बड़े बड़े शहरों में गढ़ी, बड़े बड़े लोगों की कहानियाँ। लोग अब इधर कि ओर नज़र भी नहीं फेरते। अच्छा है साहित्य का स्तर बढ़ना चाहिए। पर क्या वो कहानियाँ भारत कि मिटटी में लोटी हैं, क्या उनमे यहाँ कि नदियों का रस होगा, पता नहीं। खैर अब भी मेरी कहानियों पर मक्खियां भिन भीना रही हैं। शायद अब उन कहानियों का रस बस इन्हे ही भाता है। धूप बहुत है, गला सुख रहा है। चलो छोडो, इन कहानियों को यहीं इन मख्खियो के पास छोड़ जाता हुं। रचयेता हुं, निकलता हु किसी मॉल में बिकने वाली रचना कि तलाश में।