“साहित्यकार भी गुमनाम होता है”
“साहित्यकार भी गुमनाम होता है”
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ज्यों मैंने आवाज़ उठाई ,
‘पर’ ही मेरा कतर दिया ।
अपनी लाज बचाना चाहा,
झट से लज्जित कर दिया।
अरे , न्याय ही तो माॅंगा था ,
घोर अन्याय क्यों कर दिया ?
हमारे कलम की ताक़त को ,
रोकने का दुस्साहस जो किया।
अभिव्यक्ति कैसे रोकोगे ?
कभी पकड़ नहीं पाओगे ।
तुम एक अल्फ़ाज़ रोकोगे ,
सैकड़ों अल्फ़ाज़ निकलेंगे।
मेरे शब्द बड़े ही नाज़ुक हैं,
पर यही तो मेरी ताकत है।
फूल सा कोमल न समझो,
ये तलवार से भी घातक हैं।
जब ये सचमुच में बोलेंगे ,
तेरे रोम रोम कंपित होंगे ।
सबके ही न्याय के वास्ते ,
भले खुद हम लज्जित होंगे।
फ़क़त झूठ के पुलिंदे से ,
कितना तुम बढ़ पाओगे ।
ये ख़िज़ां का वक्त है तेरा ,
तुम खुद से मिट जाओगे ।
साहित्य के मूल्य को समझो ,
वरना संभल कभी न सकोगे।
अपने निजी स्वार्थ के चलते ,
साहित्य को गर्त में डुबो दोगे।
इन्हीं सब कारनामों के चलते ,
कभी साहित्य बदनाम होता है।
तेरे जैसे निकृष्ट सोच के चलते ,
साहित्यकार भी गुमनाम होता है।
( स्वरचित एवं मौलिक )
© अजित कुमार “कर्ण” ✍️
~ किशनगंज ( बिहार )
दिनांक :- 07 / 04 / 2022.
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