*सास और बहू के बदलते तेवर (हास्य व्यंग्य)*
सास और बहू के बदलते तेवर (हास्य व्यंग्य)
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पुराने जमाने में शादी के समय बहुऍं चिंता और तनाव से ग्रस्त रहती थीं कि पता नहीं सास कैसी मिलेगी ? सास का व्यवहार कैसा होगा ? सास कहीं खडूस तो नहीं होगी ! प्राय: सासें हिटलर होती थीं । यद्यपि अनेक सासें बाहर से कठोर नारियल के समान तथा भीतर से निर्मल जल भरी भी होती थीं । ऐसे अनेक खट्टे-मीठे उदाहरणों को सामने रखकर बहू का चिंतित होना स्वाभाविक था कि पता नहीं उनके भाग्य में कौन सी सास लिखी है ? अच्छी पल्ले पड़ गई तो ठीक है और बुरी से वास्ता पड़ा तो कैसे निभेगी ?
पुराने जमाने में सास के बगैर बहू का कार्य भी नहीं चल पाता था। कई सासें तो इसी इंतजार में रहती थीं कि उनके साथ उनकी सास ने जो सख्ती अपनाई थी, मौका आने पर वह सास के रूप में अपनी बहू के साथ ब्याज सहित वसूल कर लें अर्थात जिस दिन बहू आई, उसी दिन सास को अपनी सास के तेवर याद आ जाते थे और वह तानाशाही व्यवहार अपनी बहू के साथ अपनाना शुरू कर देती थीं।
यह काम मत करो। इस प्रकार से करना होगा। यह पहनो। वह मत पहनो। मेकअप इतना करो, इससे ज्यादा नहीं। खाते समय ज्यादा मुंह मत चलाओ। कुछ कम खाओ। भोजन में मिर्च अधिक नहीं होनी चाहिए। बैठने का सलीका सीखो आदि-आदि हिदायतें सासें अपनी बहू को देती थीं । ज्यादातर मामलों में इस प्रकार के मार्गदर्शन की यद्यपि आवश्यकता नहीं होती थी लेकिन फिर भी सास को क्योंकि अपना ‘सासपन’ दिखाना होता था, इसलिए वह बहू पर हुक्म चलाना आवश्यक समझती थीं। सास को भय रहता था कि अगर उसने पहले दिन से ही बहू पर हंटर नहीं चलाया तो बहू उसे सास के रूप में कभी भी भय के साथ ग्रहण नहीं करेगी। इसलिए सास जब भी समय मिलता था, अपनी कठोर मुखमुद्रा बनाकर बहू के सामने प्रकट होना आवश्यक समझती थी।
अब स्थिति बदली है। शादी के समय सास को डर बना रहता है कि पता नहीं बहू कैसी मिले ? सामंजस्य बैठे कि न बैठे ? बेटे को लेकर किसी दूसरे शहर में न चली जाए ? घर में ही अलग रसोई बनाना शुरू न कर दे ? सास से बात करे कि न करे ? सास को डर रहता है कि बहू का मुंह हर समय टेढ़ा न हो ? कहीं जवाब न देना शुरू कर दे ?
सास तो बेचारी भीगी बिल्ली बनी रहती है। जब से रिश्ता होता है और विशेष रूप से जब से घर में बहू आती है, सास उसको चिकनी-चुपड़ी बातें करके लुभाने की कोशिश करती है। जो बहू कहती है, सास उसे स्वीकार करने में एक क्षण की भी देरी नहीं करती। उसे मालूम है कि आजकल जो बहू ने कह दिया, वह पत्थर की लकीर होती है। सास उसमें कोई संशोधन नहीं कर सकती। बेटा भी बहू का साथ देगा, यह बात सास खूब अच्छी तरह समझती है। बहू कुछ भी पहने, सास को सब स्वीकार रहता है।
अपनी पुरानी सास को वर्तमान सास याद करती है और अपने दुर्भाग्य पर अक्सर दो ऑंसू बहाते हुए कहती है कि जब हम बहू बनकर आए थे तब भी हमें हंटर वाली सास मिली थी और जब हम सास बनकर बहू लाए हैं तब भी हमें हंटर वाली बहू ही मिली है। न हम बहू बनकर हिटलर हो पाए थे, और न सास बनकर ही हिटलरशाही चला पा रहे हैं।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
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