सावन के झूलें
सावन के झूलें कहे, मन है बड़ा उदास ।
युग आया है आधुनिक, टूट रही है आस।।
टूट रही है, आस कहीं है, भटकी-भटकी।
कट-कट काटे, रस्सी -पाटे, लटकी- लटकी।।
यह सूनापन, भारी तन-मन, रोता आँगन ।
बीते गिन-गिन, कजरी के बिन, कैसा सावन।।
डाली-डाली रिक्त सी, ताके निशि दिन राह ।
सखियाँ आ जाये कभी, भूले-भटके राह।।
भूले-भटके, राह पलट के, झूले आये ।
सूनी गलियाँ, गुम-सुम कलियाँ, फिर मुस्काये।।
कभी न रोकें, पट के झोंके, खाली-खाली ।
लिखकर पाती, तुम्हें बुलाती, डाली-डाली ।।
झूलों की रौनक नहीं, हँसी ठिठोली लुप्त।
शहर पहुँचते गाँव में, धीरे – धीरे गुप्त ।।
धीरे- धीरे, गुप्त लकीरें, फांद रहे हैं ।
मानव लश्कर, बोली बिस्तर, बांध रहे हैं।।
कहता सावन, हरियाला मन, कभी न भूलों।
बांध हिंडोला, फोड़ फफोला, झूला झूलों।।
©️रेखा कापसे ‘कुमुद’