सावन की घटा
घटा हूँ; घटा मैं, सावन की घटा हूँ।
सुनो बात मेरी; निराली छटा हूँ।
बड़ी ही सयानी; बड़ी ही सुहानी।
बहुत हूँ; मैं चंचल, अजब सी मैं कोमल।
न किसी का फिकर है, न किसी का डर है।
जिधर चाहती हूं, उधर मैं बरसती।
शहर-गांव-कस्बे, नदी-नहर को भिगोई।
बरसी पेड़-पीपल; झमाझम मचाई।
भिगोती चली मैं; बरसती चली मै।
धड़ाधड़ मैं गरजी; तड़ित बनकर चमकी।
हरे खेत पहुंची, फसलों को भिगोई।
अनोखी अदा हूँ, मैं सावन की घटा हूँ।
पल दो पल क्या! अनेकों मैं घण्टों।
पेड़-पौधों को भिगोई, धरा को नहलाई।
हरे-भरे खेतों में; आनन्द खूब आई।
हिलाई-दुलाई; पेड़ों को हिलाई।
जमकर झकोरी; पेड़ों को गिराई।
मझे देख हर्षित; हुए परवल,चौराई।
न मानी; न समझी, पथिक को नहलाई।
इसी पर मैं गरजी, इसी पर मैं बरसी।
हंसी जोर से फिर; हंसी मदमस्त फ़िजाएँ।
हंसे लहलहाते; जलमग्न खेत सारे।
हंसी चमचमाती; हंसी कड़कती बिजली।
सावन की घटा में; हंसी दुनियां सारी।
–सुनील कुमार