सावन की कोकिला
बसंत बहारों में कुकी थी, फूलों की तू महक लिए।
आमों की डाली पर झूली कितनी ही तू ठुमक लिये।।
गर्मी की चिंता ना करके आमों में तू झमू रही।
आम पके तब बगिया खाली, कूक तेरी जाती रही।।
सावन की ऋतु लेकर आई, मस्ती मौज बहारों को।
काले भूरे बादल छाए बरसा रहे फुहारो को।।
तृण तृण सारे फूल रहे हैं, प्यास बुझी अब चातक की।
मोर पपीहा नाच रहे,जाग उठे हैं पातक भी।।
पर तू कोयलिया गुम सुम हो गई, आमों के अफसोस में।
मैं भी ऐसी विरहा बन गई, मन मेरा नहीं होश में।।
ऐसी तड़पन सावन लाया, दिन राती जागी रहूं।
बाट देखती रहती हूं मैं, यादों में लगी रही।।
चकवी जैसे चांद को ताके, खो देती है रातों को।
नैनों में भर चित्र पिया के, याद करूं कुछ बातों को।।
लौटेंगे जब देश पिया तो, दिल मेरा पावन होगा।
मै भी नाचूंगी – गाउंगी जब हरियाला सावन होगा।।