सार्थक शब्दों के निरर्थक अर्थ
सार्थक शब्दों के अर्थ निरर्थक हो जाते हैं,
कर्म की प्रतिबद्धता के बिना, जब वो थिरक जाते हैं।
रास्तों के बिना मंजिल अज़नबी बन के आते हैं,
नये आगजों में पुराने साये भी तो मंडराते हैं।
जिंदगी तो चलती है, पर कदम रुक से जाते हैं,
आँधियों के बाद भी तो, कुछ दीप जगमगाते हैं।
कुछ आँखों को अंधकार भी सहला जाते हैं,
जो रौशनी की परतों में चौँधियाते हैं।
खूबसूरत अक्स भी मलीन से हो जाते हैं,
जब धूल से शीशे नहीं दिल सने रह जाते हैं।
स्वयं पर पड़े धब्बे बेदाग़ नज़र आते हैं,
परन्तु दूसरों के दाग़ पारदर्शिता से दिख जाते हैं।
विश्वास की पवित्र मालाओं में भी तो,
अंधविश्वास के मोती ठहर, खिलखिलाते हैं।