सार्थकता
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हमें राष्ट्र की तरह जीना था
हम जाति और धर्म की तरह
जीने में फख्र करते हैं।
गौरव गान नस्ल और संप्रदाय का।
हम अपरिपक्व हैं या हमारी शिक्षा!
अशिष्ट,अपवित्र,अशुद्ध रह गयी है हमारी दीक्षा।
आओ हम अकाल मृत्यु सा शोक मनाएँ।
हमें मृदु मुस्कान सी हंसी हँसना था।
करते हैं हम उपेक्षा-युक्त अट्टहास।
हमें सँजो रखना था सम्मान।
करते हैं खुद को
अपमानित करने का सारा प्रयास।
पाप की आत्मा अपने अंदर सुलगाते हैं।
अपठनीय पुण्य पढ़ते-पढ़ाते हैं।
आओ हम
चुल्लू में डूब मरे लज्जा सा शर्म मनाएँ।
हमें सार्वजनिक विजय हेतु लड़ना चाहिए।
हम युद्ध करते हैं व्यक्तिगत जीत के लिए।
‘राष्ट्र सर्वोपरि’ का थीम राष्ट्रीय चेतना का हो।
‘सर्वश्रेष्ठ मैं’ का मंत्र राष्ट्रीय वेदना सा है, लो।
‘स्व का अन्त’ सर्वजनीन सुख हेतु होता काश!
सब का अन्त अपने आह्लाद के लिए ठहराते उचित।
आओ हम बिना लड़े ही विजय का जश्न मनाएँ।
कौशल जिस समाज में होता रहा है अपमानित।
कुशलता को जाति में बांधने वाला होता रहा पंडित।
अस्पृश्यता ने कारीगर को बनाया हो दलित,वंचित,पीड़ित।
उसे वर्चस्वहीन करना राष्ट्रधर्म है वर्तमान का।
तथा है वक़्त समाज में साम्यवाद से समाजवाद के उत्थान का।
शासन उत्तरदायित्व ले कर्म से कर्तव्य से-
अन्यथा कालांतर में नष्ट होने का आओ प्रश्न उठाएँ।
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अरुण कुमार प्रसाद 18/12/22