पास बुलाता सन्नाटा
यात्रा सदैव आनंददायक होती है क्योंकि यात्रा के दौरान और गंतव्य स्थान पर पहुँचने पर अनेकानेक व्यक्तियों स्थानों और वस्तुओं से परिचय होता है। यदि यात्रा शैक्षिक उद्देश्य से ही की जाए तो निश्चित रूप से कुछ जानने और समझने के लिए चौकन्ना रहना इसलिए आवश्यक हो जाता है कि कहीं कुछ ऐसा न हो जो हमारी आँखें देखने से चूक जाएँ। ऐसी ही एक यात्रा का सुयोग बना केंद्रीय विद्यालय पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर में सेवाकालीन प्रशिक्षण शिविर के दौरान। प्रशिक्षण शिविर के सातवें दिन 14/05/2023 को सभी प्रतिभागियों को शैक्षिक भ्रमण के लिए सारनाथ ले जाने का निर्णय लिया गया। वह स्थान, जिसके विषय में केवल पुस्तकों के बारे में पढ़ा हो, यदि उस स्थान पर जाकर देखने का सुखद संयोग बने तो हर्ष का पारावार नहीं रहता।
केन्द्रीय विद्यालय पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर ( मुगलसराय) चंदौली ( उप्र) से हम लोग तीन गाड़ियों में सवार होकर निकले। हमारी गाड़ियाँ ऐतिहासिक जी टी रोड पर सरपट दौड़ने लगीं।वह जी टी रोड जो कभी ढाका से काबुल तक जाती थी।रास्ते में साथियों ने इच्छा व्यक्त की सारनाथ के साथ-साथ लमही भी देखना चाहिए। इतनी दूर आकर यदि उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी के पैतृक गांव नहीं गए तो यात्रा अधूरी रह जाएगी। हिंदी के शिक्षक होने के नाते मुंशी प्रेमचंद के विषय में जानने की जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही था। गाड़ी चला रहे व्यक्ति से, जो कि विगत तीन वर्ष से मुगलसराय में रहता था,जब लमही के संबंध में और प्रेमचंद जी के विषय में पूछा गया तो उसने अनभिज्ञता प्रकट की। यह वास्तव में साहित्यप्रेमी और एक हिंदी शिक्षक के लिए द्रवित करने वाली बात थी। खैर, साहित्य और साहित्यकार सदैव से उपेक्षित ही रहा है।सारनाथ से लौटते हुए जब हम लमही पहुँचे तो दृश्य और भी हृदय विदारक था। प्रेमचंद जी के नाम पर जो स्मारक बना था , उसकी स्थिति बहुत ही दयनीय थी। स्मारक के केयर टेकर दुबे जी ने बड़े ही भावुक अंदाज में बताया कि जब श्री मुलायम सिंह यादव जी मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने संस्थान को जीर्णोद्धार और रखरखाव के नाम पर कुछ रुपए दिए थे। उससे ही इस स्मारक और प्रेमचंद जी के पैतृक आवास की मरम्मत कराई गई थी। उन्होंने बताया कि ऐसा नहीं कि यहाँ पर कोई नेता या अधिकारी आता नहीं है। सभी आते हैं और यह कहकर चले जाते हैं कि दुबे जी आप बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। बातों से तो कोई काम होता नहीं है। काम करने के लिए धन की आवश्यकता होती है।सरकार और समाज दोनों ने उस महान कथाकार को विस्मृत और उपेक्षित-सा कर दिया है।
काल के थपेड़े से आज तक कोई भी बच नहीं पाया। एक न दिन सभी उसकी चपेट में आते हैं। अपने प्राचीन वैभव को समेटे लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करता सारनाथ इस बात का जीता-जागता सबूत है। हम सभी सारनाथ में सर्वप्रथम भगवान बुद्ध के मंदिर गए, जहाँ पर पर भगवान की भव्य स्वर्ण प्रतिमा स्थापित है। वैसे गाइड ने यह पहले ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वास्तव में यह प्रतिमा स्वर्ण निर्मित नहीं है। मूर्ति पर सोने का पानी चढ़ा हुआ है।हम दर्शनार्थियों का इससे कोई खास मतलब नहीं था।हम तो भगवान बुद्ध की अद्भुत प्रतिमा के दर्शन करके ही अपने आपको धन्य समझ रहे थे। मंदिर के पास ही वह बोधि वृक्ष भी था, जहाँ पर बैठकर बुद्ध ने ज्ञानप्राप्ति के पश्चात अपने अनुयायियों को सर्वप्रथम उपदेश दिया था। वृक्ष के नीचे प्रतिकृति रूप में भगवान बुद्ध और उनके अनुयायियों की जीवंत प्रतिमाओं को निर्मित किया गया है। वहीं पर धर्मचक्र भी लगाए गए हैं। आने वाले दर्शनार्थी उन धर्मचक्रों को घुमाकर अपने आपको गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
वहीं पर एक छोटा-सा चिड़ियाघर भी सरकार के द्वारा विकसित किया गया है।उसमें ऐमू, सारस जैसे गिने-चुने पंछी बंद हैं। पक्षियों को लोगों के अवलोकनार्थ बंद करके रखना कहाँ तक उचित है, इस पर अलग से चर्चा की जा सकती है। उस चिड़ियाघर में घड़ियाल और मगरमच्छ तथा कुछ हिरन भी थे। इस चिड़ियाघर का विकास सरकार द्वारा शायद उद्देश्य से किया गया होगा कि पर्यटकों के साथ आने वाले बच्चों का भी मनोरंजन हो सके। बच्चे अपने माँ-बाप से यह न कहें कि आप मुझे कहाँ ले आए।
इसके बाद बारी थी उस स्थान का दर्शन करने की जहाँ कभी बौद्ध भिक्षु बैठकर अध्ययन,चिंतन-मनन और ईश्वर आराधन करते थे।उनको देखकर भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अहसास स्वाभाविक रूप से हो रहा था। वहीं पर वह स्थान भी था जहाँ कभी अशोक स्तंभ था।आज वह स्तंभ भग्नावस्था में अपने वैभव की गौरव गाथा बयान कर रहा था। पूछने पर ज्ञात हुआ कि स्तम्भ के ऊपर जो चार शेर बने हुए थे वे खंडित होने के पश्चात संग्रहालय में सुरक्षित रखे हुए हैं।उसी परिसर में हम सब सांची स्तूप को देखने गए जहाँ पर एक बौद्ध भिक्षु उसकी प्रदक्षिणा कर रहे थे।मई की भयंकर गर्मी हम सभी के हौसले पस्त कर रही थी पर उन बौद्ध भिक्षु को देखकर यह समझ में आया कि आस्था के रास्ते में सर्दी, गर्मी और बरसात कभी भी रोड़ा नहीं बन पाते। जब हम सब संग्रहालय गए तो वहां पर हमें भगवान बुद्ध की अलग-अलग मुद्राओं में बलुआ पत्थर की अनेक प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई ,दिखाई दीं। कुछ प्रतिमाएँ तो कुषाण काल और गुप्त काल की थीं।संग्रहालय में खुदाई के दौरान प्राप्त स्वर्ण आभूषणों को भी प्रदर्शित किया गया था। एक स्थान पर भोजन बनाने के बर्तन; जैसे करछुल, लोहे की बनी कुल्हाड़ी, और तांबे से निर्मित चूड़ी भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र थी।
समय की अपनी सीमाएँ होती हैं। समय इशारा कर रहा था कि अब हमें सारनाथ से बिदा लेना चाहिए। हम सभी अनमने से शिविर निदेशक महोदय के आदेश का पालन करते हुए सारनाथ से विदा हुए किंतु मन में अभी भी उमंग थी। उमंग थी लमही जाने की, जहाँ हम सबको उस पवित्र भूमि पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करने थे जो मुंशी प्रेमचंद जी की जन्म-भूमि है। साहित्यप्रेमियों के लिए लमही किसी तीर्थ-स्थल से कम नहीं।
डाॅ.बिपिन पाण्डेय