साया
रात के घने अँधेरे में एक हाथ जो द्वार खटकने के उद्देश्य से आगे बढ़ा था। वह भीतर का वार्तालाप सुनकर ज्यों-का-त्यों रुक गया।
“चलो अच्छा हुआ कल्लू की माँ, जो दंगों में लापता लोगों को भी सरकार ने दंगों में मरा हुआ मान लिया है। हमारा कल्लू भी उनमे से एक है। अतः सरकार ने हमें भी पाँच लाख रूपये देने का फैसला किया है।”
“नहीं … ऐसा मत कहो। मेरा लाल मरा नहीं, जीवित है, क्योंकि उसकी लाश नहीं मिली है! ईश्वर करे वह जहाँ कहीं भी हो, सही-सलामत और जीवित हो। हमें नहीं चाहिए सरकारी सहयता।”
“चुपकर! तेरे मुंह में कीड़े पड़ें। हमेशा अशुभ-अमंगल ही बोलती है। कभी सोचा भी है—अपनी पहाड़-सी ज़िंदगी कैसे कटेगी? दोनों बेटियों की शादी कैसे होगी? अरे पगली, दुआ कर कल्लू जहाँ कहीं भी हो मर चुका हो। वह सारी उमर मेहनत-मजदूरी करके ही पाँच लाख रुपए नहीं बचा पाता।”
“हाय राम! कैसे निर्दयी बाप हो? जो चंद पैसों की ख़ातिर, अपने जवान बेटे की मौत की दुआ मांग रहे हो। आह!”
“तू यहाँ पड़ी-पड़ी रो-मर, मैं तो चला बहार। कम-से-कम तेरी मनहूस जुबान तो नहीं सुनाई पड़ेगी।” कहने के साथ ही द्वार खुला। बाहर मौज़ूद था सिर्फ अमावस का घनघोर अँधेरा। जिसमें वह साया, न जाने कहाँ गुम हो गया था, जो बाहर द्वार खटकाने के उद्देश्य से खड़ा था।