सामाजिक बेचैनी का नाम है–‘तेवरी’ + अरुण लहरी
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समाज सदैव परिवर्तनशील रहा है। जो कल था, वो आज नहीं। जो आज है वो कल नहीं रहेगा। यह ध्रुव सत्य है कि जब-जब भी समाज में परिवर्तन हुए हैं, मानव के रहन-सहन विचारों आदि में भी परिवर्तन आया है। आदिम काल में हमारे पूर्वजन नंगे रहते थे, लेकिन आज ऐसा नहीं है। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ है, हमारे सोच, चिन्तन और विचारों में भी शनैः-शनैः परिवर्तन आया है। जैसा कि सभी जानते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण है, इस प्रकार जिस युग में जैसा समाज था वैसा ही साहित्य रचा गया। वैदिक काल में जो साहित्य रचा गया, उसमें धर्मप्रधान था। उस काल में धर्म की जड़ें बहुत गहरी थीं। यदि हमें किसी कालविशेष की अवस्था का, उसकी उन्नति अवनति, आचार विचार, ज्ञान विज्ञान संगठन-विघटन का सही चित्र पाना अभीष्ट हो तो, हमें चाहिये कि उस समय के साहित्य का अवलोकन करें। यदि हम अपने उत्कर्ष अपकर्ष, उत्थान पतन, जय-पराजय, गुण-अवगुण एवं जीवन-दर्शन का यथातथ्य विवरण अपने इतिहास से प्राप्त करना चाहें तो वैदिक साहित्य से आरम्भ करके लौकिक-संस्कृति साहित्य, पाली-साहित्य, प्राकृत साहित्य, अपभ्रंश साहित्य और मध्य कालीन तथा आधुनिक प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करना होगा। हमारा समाज अपनी समस्त विशिष्टताओं और दुर्बलताओं के साथ वहाँ चित्रित मिलेगा।
साहित्य एक ओर जहाँ सामाजिक-परिस्थितियों का चित्रण करता है, वहीं दूसरी ओर उन परिस्थितियों को प्रभावित भी करता है। वस्तुतः साहित्य और समाज निरंतर एक दूसरे को प्रभावित करते रहे हैं और करते रहेंगे। जहाँ सामाजिक स्थिति, सामाजिक रचना के लिये सामग्री प्रदान करती है, वहीं साहित्य समाज की गतिविधियों में परिवर्तन और क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करता है। इतिहास साक्षी है कि साहित्य ने सदैव समाज को बदला है। फ्रांस की राज्यक्रान्ति वाल्टेयर जैसे साहित्यकारों के प्रयत्नों का परिणाम थी। प्रेमचन्द, भगतसिंह, बिस्मिल, अशफाक, वंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, भारतेन्दु हरिश्चन्द आदि के साहित्य ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की क्रान्ति में नये प्राण फूँके।
समाज में जैसे-जैसे अन्याय, शोषण, अत्याचार बढ़ा, ठीक वैसे ही साहित्य की सीमाएँ बढ़ीं, अभिव्यक्ति के कौशल बढ़े। वह कविता रुचिकर मानी जाने लगी जिसमें या तो भावविभोर करने की शक्ति रही हो या बुद्धि को झकझोर देने की।
हमारा राष्ट्रीय-जीवन राजनीति के क्षेत्र में अपना संकल्प पूरा करे या न करे, हमारी कविता अभिषप्त जीवन के स्वर्ण पिंजर से निकलकर जनजीवन के समीप पहुँचती गयी है। उसका चरित्र आम आदमी के चरित्र से एकाकार हो गया है और उसे अभिव्यक्ति के क्षेत्र के जनवादी संस्कारों की उपलब्ध हुई है। समकालीन कविता जनसाधारण को निकट तक पहुँचाने, उसके दुःखदर्दों, भूख, त्रासदी, शोषण में हाथ बँटाने और उसे सही गलत को पहचान कराने के लिये अत्यधिक बेचैन है और उसी बेचैनी का नाम है-‘तेवरी’।
-तेवरी अपने भीतर शोषण, अत्याचार, उत्पीड़न, भूख, त्रासदी और चारित्रिकपतन से उत्पन्न हुआ एक ऐसा तेवर छुपाये हुये है जो कहीं न कहीं सामाजिक परिवर्तन और क्रान्ति की पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटा है।
– ‘तेवरी’ राशन के लिये लगे उस पंक्ति के लोगों का बयान है जिसे दो जून की रोटी की जुगाड़ के लिये अपनी सारी उम्र मर-खपकर गुजारनी पड़ती है।
– तेवरी गरीब की कमीज को सींता हुआ सुई और धागा है।
– तेवरी गरीब की जवान होती हुई बेटी है, जिस पर दानवों की पैशाचिक दृष्टि गड़ जाती है।
– तेवरी बेटी के लिये दहेज न जुटा पाने वाले बाप के आँसुओं की करुण-गाथा है।
– तेवरी गरीब के चूल्हे पर सिंकती हुई वह रोटी है, जिससे किसी भूखे को क्षुधा शांत होनी है।
– ‘तेवरी’ ऐसा धर्मयुद्ध है, जिसका रणक्षेत्र सामाजिक विकृतियों और विसंगतियों से युक्त समाज है।
– ‘तेवरी’ समाज को मीठे सपनों में सुला देने वाली कोई गोली नहीं, जिसे आसानी के साथ निगला जा सके, बल्कि कसैली बेस्वाद गोली की तरह रुग्ण मानसिकता पर प्रहार करती हुई समाज को एक स्वस्थ पुष्ट चरित्र प्रदान करती है।
– तेवरी वसंत का उन्मादक रूप नहीं निहारती, बल्कि उस पर टिकी आशाओं, सम्भावनाओं, विश्वासों के साररूप की नींव डालती है।
– तेवरी शांत जल के ऊपर विहार करते हुए हंसों के सौंदर्य को नहीं निहारती, बल्कि बहेलिये के तीर से घायल हंस की आँखों में छुपी वेदना को टटोलती है।
– तेवरी नारी को साकी के रूप में नहीं चाहती, बल्कि स्वार्थी समाज द्वारा उत्पीडि़त, शोषित और छली हुई नारी की पीड़ा को अभिव्यक्ति देती है।
– तेवरी किसी शराबी के अंग संचालन-परिचालन पर ध्यान केन्द्रित न कर, अपना सारा सोच उसकी विकृतियों पर लगाती है।
– तेवरी शमा और परवाने की दास्तान कहने में विश्वास नहीं रखती, बल्कि गाँव और शहर के बूढ़े निर्धन रामू काका के चेहरे पर आयी झुरियों का इतिहास बताती है।
– तेवरी किसी एक आदमी का आत्मालाप नहीं, बल्कि उस भीड़ का बयान है जिसे रोजी-रोटी और नीड़ की तलाश है।
– तेवरी उन हाथों को प्यार और सहानुभूति से निहारती है, जिन पर मेंहदी रचने के बजाय छाले रच जाते हैं।
– तेवरी चाँदनी में नहायी हुई नारी को देखकर प्रफुल्लित नहीं होती, बल्कि लू में तपते हुए जिस्म को देखकर दुःखी अवश्य होती है।
– ‘तेवरी’ गुलाबी होठों का रसपान नहीं, दवा के अभाव में दम तोड़ते हुए खुश्क होठों का भान है।
– ‘तेवरी’ बलत्कृत नारी के नंगे तन को देखकर मुँह बिचकाकर नहीं चलती, बल्कि अपने तन का वस्त्र उतार कर उसका नंगा जिस्म ढाँप देती है।
– ‘तेवरी’ चीते की चपलता और उसके सौन्दर्य का बयान नहीं करती, बल्कि उसकी विश्वासघाती प्रवृत्ति को उजागर करती है।
– ‘तेवरी’ इस आदमखोर व्यवस्था के प्रति क्रान्तिकारी सिद्धान्तों के व्यावहारिक रूप को अमली जामा पहनाती है।
– तेवरी शीशे के मसीहाओं पर सच्चाई का पत्थर उछालती है।
– तेवरी आगे बढ़ती हुई सेना के जोश का बयान नहीं, बल्कि धरती की सूनी होती हुई गोद का कन्दन है।
– तेवरी सामाजिक यथार्थ और चेतना के आग्रह का स्वर है।
– तेवरी अत्याचारी के खंजर से टपकती हुई एक-एक बूँद का हिसाब माँगती है।
– तेवरी स्वस्थ, शोषणविहीन समाज की अनिवार्यता है और यही तेवरी का सौन्दर्य है।