“साफ़गोई” ग़ज़ल
रँग सब ढल जाएंगे, हम-तुम जुदा हो जाएँगे,
शब-ए-फ़ुरक़त के अँधेरों मेँ, कहीं खो जाएँगे।
है घटा, सहमी हुई, आमद-ए-ख़बराँँ-महज़बीं,
वो, सुखाने, ज़ुल्फ़, छत पे भी, कभी तो जाएँगे।
इन्तहा भी पार कर लें , वो, तग़ाफ़ुल की भले,
उनके दिल में बीज, उल्फ़त का मगर, बो जाएँगे।
आसमां में, कितने हैं तारे, ये हम से पूछिए,
क्यूं समझते हैं वो, करके याद हम, सो जाएँगे।
चाँद भी, शरमा रहा, रुसवा न, हो जाऊं कहीं,
वस्ले-ख़ातिर, बन सँवर कर, भी कभी वो जाएँगे।
भाँप लेंगे उनकी आहट, दौर-ए-बेख़ुद भी हम,
लड़खड़ाते पाँव, फिर भी, मरहबा को, जाएँगे।
गुफ़्तगू की है भले, मन मेँ जवाँ “आशा” अभी,
देखकर उनका तबस्सुम, हम घड़ों रो जाएँगे..!
शब-ए-फ़ुरक़त # वियोग की रात, night of aloofness
आमद-ए-ख़बराँँ-महज़बीं, # चाँद सी ख़ूबसूरत (प्रेमिका के) आने का समाचार पा कर, news of arrival of (the beloved) as beautiful as moon
तग़ाफ़ुल # उपेक्षा करना, to neglect
उल्फ़त # प्रेम, love
वस्ले-ख़ातिर # मिलन हेतु, in a bid to meet
वस्ले-ख़ातिर # मिलन हेतु, in a bid to meet
दौर-ए-बेख़ुद # बेसुध अवस्था में, during senselessness
मरहबा # स्वागत, welcome
तबस्सुम # मनमोहक मुस्कान, pleasant smile
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