सापेक्षता (समकालीन कविता)
तुम,
आधे-अधूरे नहीं,
परिपूर्ण हो,
सम्पूर्ण हो ।
क्योंकि-
तुम्हारे पास
हाथ हैं ,
पांव हैं ,
नाक है,
कान हैं,
आंखें हैं ।
यहां तक कि-
उन्नत कल्पनाओं
को सहेजने
बाला मन भी ;
करूणा से
भरा हृदय और
अनुशासित
मस्तिष्क भी ।
फिर भी
जब-जब
देखती हैं तुम्हारी आंखें
केवल हरियाली ,
तब-तब
पतझड़ में भी
खिलते हैं वसंत के फूल ।
जब-जब
सुनते हैं तुम्हारे कान
मानवता का राग ।
तब-तब
झूम उठती है प्रकृति
और भाग जाते हैं
अप्रत्याशित भय
जीवन के ।
जब-जब
संपन्न करते हैं
तुम्हारे पांव
“दाण्डी-यात्रा” ।
तब-तब
कुछ निश्चिंत-सी
हो जाती है
यह धरती ।
जब-जब भी
तुम्हारा हृदय
करता है
सच्चा पश्चाताप
” कलिंग के बाद ” ।
तब-तब
समुद्र को भी
होने लगती है
ईर्ष्या तुमसे ।
जब-जब
तुम चढ़ जाते हो
सलीब पर
सम्पूर्ण समर्पण से ।
तब-तब
आकाश भी
मह़सूस़ करता है
अपना बौनापन ।
जब-जब
तुम्हारी जिह्वा
कहती है
“भज गोबिंदम् मूढ़ मते” ।
तब-तब
ज्ञान की धरती
पर भी लहलहाती है
भक्ति की मीठी फ़सल ।
जब-जब
मस्तिष्क तुम्हारा
बनता है
“आइंस्टाइन ”
तब-तब
गौरवान्वित होता है
ब्रह्माण्ड ,
अपनी ही रचना पर ।
ऐंसा
तब-तब
होता है ,
जब-जब
तुम्हारी सोच
होती है “धनात्मक” ।
क्या कभी ?
तुमने. … तुमने
या किसी ने भी
सोचा है आज तक ,
तनिक भी
गहराई से कि
तुम्हारे जीवित
होते हुए भी
जीवन से कितना
दूर ले जाती है
तुम्हें , तुम्हारी ही
” ऋणात्मक सोच “. ।
ईश्वर दयाल गोस्वामी ।
कवि एवं शिक्षक ।