साधु न भूखा जाय
रोज सवेरे एक चिरैया,
दाना चुगने आती है,
दाना चुगती पानी पीती
फिर फुर्र से उड़ जाती है।
उसे नहीं है कल की चिंता,
क्या है खाना, क्या है पीना,
न ही उसे बंगले की चिंता,
धन दौलत और शोहरत की,
इनके लिए न रिश्वत लेना,
न काला धन संग्रह करना।
उसे तो बस है, आज की चिंता,
खुद खाना और चुग्गा चुनना,
झुंड के झुंड फिर कलरव करना,
तिनके जोड़ एक नीड़ बनाना।
यह जीवन का सच्चा दर्शन
जो गुरु मुख कहलाय,
मैं भी भूखा न रहूंँ,
साधु न भूखा जाय।
मौलिक व स्वरचित
श्री रमण, बेगूसराय (बिहार)