साधिका भी …
शीर्षक गीत –साधिका भी …
(पहले मिलन ,फिर कर्म पथ।
अंत संधिकाल में समागम।)
मात्रा भार 26
साधिका भी सिंधु तट पर झूमती हिय नेह की।
उर प्रकम्पित कर रही थी भावना क्यों मेह की।टेक
अंतरा 1
जब दिवस का उर समागम हित मचलता भोर था।
प्रेम अनुनय के जिगर में कामना का शोर था।
प्राण घट को प्राण घट से मिल रहा शुचि जोर था।
नाचता संतृप्त हो कर जीवनी का मोर था।
क्यों न खिलती फिर कली लज्जा सदृश सन्देह की।
उर प्रकम्पित कर रही थी भावना क्यों मेह की।टेक
अंतरा –2
थे सभी अभिशप्त बन्धन उस सुहागिन लाज के।
जब बहे विक्षुब्ध होकर स्वर सुहावन साज के।
बिंध गई जब नीलिमा निज कर्म के ही मर्म से।
झुक गई तब प्रकृति पागल, हो सुवासित शर्म से।
चल पड़ी फिर गति अचंचल तरलता बन देह की।
उर प्रकम्पित कर रही थी भावना क्यों मेह की।टेक
अंतरा 3–
हर गुलाबी पट प्रभावित हो रहा था भस्म सम।
मुख विकलता ढो रहा था अस्त के मार्तण्ड सम।
तमस,रज का मिलन पथ भी लग रहा था विघ्न सम।
ज्यों लजा कर नेह चूमे जिंदगी भी गहन तम।
जल उठीं सुखमूल कलियाँ तब धरणि के गेह की।
उर प्रकम्पित कर रही थी,भावना क्यों मेह की।टेक
मनोरमा जैन “पाखी”
मौलिक,अप्रकाशित एवं स्वरचित
मनोरमा जैन पाखी