साधना के सुर
उड़ चला हूँ आज फिर
इस चंचल मन की डोर थामे,
आस के पर, धैर्य, निष्ठा
बंदना के सुर सम्भाले।
पार कर लें इस तिमिर को
ज्योति – पूंज बन उर-समर में,
प्राण-प्रण से पुण्य – अर्जित
साधना के हवन-कुंड में।
कौन कहता है प्रलय अभिषाप है
तप तपस्वी का अमिट अभिमान है,
मानवी के कर्म – फल के तेज का
बीज बन उपजा यह उर्जित ज्ञान है।
बन धरा-पुत्र जोग का संधान कर
चक्र खण्डित कर मनुज संताप हर,
नव-विहान! हो धरा उज्जवल-धवल
मानवी के मर्म का परिष्कार कर।
कल्याण कर कलुषित हृदय को त्याग कर
मान रख वसुधा के आंचल थामकर,
बन वियोगी और ना आधात कर
क्या मिलेगा मृगतृष्णा पालकर।
उड़ चली है भोर अपने पर फैलाए
नव-सृजन, नव-ज्योत्सना के अंकुर बिखेरे
मंजुषा में फूल-कुसुमित चांद तारे
ओढ़कर नव-पर्व की ताने वितान।
अब जो यह उद्घोष हो तो पुण्य के प्रताप का
आश की विश्वास ओढ़े मानषी के उदय का,
साधना के सुर संजोए सृजन के उल्लास का
धूल – धुसरित सभ्यता के न्यास और विन्यास का।
उड़ चलूँ मैं फिर समेटे सत्व सारे
फिर मिलूँ मैं छोड़कर सब दंश सारे।
अब न कोई छोर हो तम से घिरा
हर जगह उल्लास हो, हो नव – विहान।
© अनिल कुमार श्रीवास्तव
15/04/2021