साथ भी दूंगा नहीं यार मैं नफरत के लिए।
ग़ज़ल
2122….1122……1122….22/112
साथ भी दूंगा नहीं यार मैं नफरत के लिए।
जान हाज़िर है सदा मेरी मुहब्बत के लिए।
एक शोला हूॅं अगर बात शराफत के लिए।
मेरा साया भी नहीं साथ अदावत के लिए।
जिसने मां बाप को रोटी भी नहीं दी यारो,
राह तकते हैं सदा वो ही वसीयत के लिए।
अग्नि पथ है ये गरल कैसे युवा पी जाएं,
इतनी सस्ती भी नहीं जान शहादत के लिए।
मेरे नगमों में छुपी है जो अनल की ज्वाला,
शायरी मेरी मुकर्रर है बगावत के लिए।
मेरे मौला हो करम मुझे तो बस इतना ही,
सिर पे छत कपड़ा निवाला हो जरूरत के लिए।
कोई भी आए बला सर पे नहीं लो प्रेमी।
हमने सब छोड़ दिए मसले अदालत के लिए।
……..✍️ प्रेमी