साझ
गुजर गए यूही जीवन के सत्तर वर्ष!
विषाद के पल थे कम ,अगणित हर्ष!!
हो रही साझ,पर भोर अभी बाकी है,
जीवन प्रतिपल तो एक नई झाकी है!!
कभी कही, ठहर नही जाना है तुमको
पुत्र विवाह की आगे इक जो साकी है!!
पुत्र,-वधू आगमन की अतुलित तैय्यारी
पित्र-ऋण से उऋण होने की झाकी है!!
तप -तप कर जो तुमने किया था निवेष
उसके बिम्ब -प्रतिबिम्ब ,अभी बाकी है!!
सतसाहित्य भरा पडा जो डायरियो मे
उसका अभीष्ठ सम्मान भी तो बाकी है!!
‘बोधिसत्व’ बोध ऋचाओ मे है वर्णित,
अंहकार नही,अंत कपालक्रिया जाकी है!!