सांवली सी एक लड़की….
सांवली सी एक लड़की दूर खेतों में खड़ी,
साथ में है बकरियां जो हाथ में लेकर छड़ी
पांव नंगे बाल मेले है भूरी काली कमर और घुटनों तक चढी है साड़ी इसकी जिस्म पर,
होठों पर सुर्खी नहीं और आंखों में काजल नहीं
उसकी असमत ढक सके इतनी बड़ी आंचल नहीं
वो कोई रानी नहीं शहजादे गुलशन नहीं बाग की तितली नहीं पनघट की वो दुल्हन नहीं ना तो शायर की गजल ना तो शरीर का ख्याल है,
वो अजंता की झलक न एलवेरा की राज है
मिस्र की देवी कोई ना तो , शाह की मुमताज है
नौजवा मासूम वो डाली नहीं अंगूर की वो भिखारिन भी नहीं
लड़की है एक मजदूर की..
यानी यानी मेहनत की पसीना में खिला एक फूल है
जिसके माथे पर चढ़ी मदलुमीयत की धूल है
वो छुपा सकती नहीं पर्दे में अपने आप को,
साग रोटी रोज ले जाती है बुड्ढे बाप को
बाप जो घर से गया दिन भर कमाने के लिए
तोड़ता है रोज पत्थर बीस आने के लिए,
बुड्ढे आंखों में अभी भी फिक्र है रोटी दाल की
हो गई अबकी बरस बेटी सोलह साल की
खेत का टुकड़ा तो पिछले साल गिरवी चढ गया
बोझ बेटी की जवानी का भी सर पर चढ गया
खौफ जिल्लत का धुआं सीने में जब भर जाएगा
तो खांसते ही खांसते वो दिन मर जाएगा,
और बेटी मौत के साए में गुम हो जाएगी
या तो रईसों की तीलसनी सेज पर सों जाएगी
या तो पागल होकर आवारा फिरेगी दर-बदर
या तो घरों से भीख लेकर हाथ रखकर पेट पर
यदी ये मुमकिन नही की वो घुंघट ओढ़ कर बैठ जाए
बांध ले घुंघरू कही या कोठे पर बैठ जाए,
क्योंकि चादरे गुलवत यहा कोई सिने देगा नहीं
वो अगर चाहे भी तो जीने कोई देगा नहीं,
इस भोडियो के शहर में मरियम बन सकती नहीं
जख्म तो बन जायेगी मरहम बन सकती नहीं
बढ़ती बिकती और लुटती है अस्मत यहां मशहूर है
अपने देश का सदियों से यही दस्तूर है…..
संजीव कुशीनगर
(7235935891)