*सांझें होना वाकी हैं*
बीत गए अनगिनत सवेरे,अब् सांझें होना वाकी हैं।
उसाँस शेष बची कंठ की, वे साँसों की साखी हैं ।१।
जो पाया वह अर्पित कर दूँ ,ऐसे पल में ढूंढूं रोज ।
परन्तु कहाँ किस स्थल पर,रखूं पोटली सिर काबोझ।।
अपलक नीरव अंतर्मन में,चिंताएं लगती बृथा सी हैं।
बीत गए ————————————————।२।
कभी फलक ललचता था,आज वही कमजोर हुआ।
सुप्त हुआ हर तँतु छ्न्द का,कब रात हुई कब भोर हुआ।।
दीख रहीं हैं धुंधलेपन की ,धुंधली सी बैसाखी हैं ।।
बीत गए ————————————————।४।
जन्मा जीवन हरा भरा सा,हाँ कुछ कोपित कंगाली में
पर पतझड़ सा अध्डेपन में, बोले पत्ता अपनी डाली में।
फीकापन सा आया है अब्,दिखता सब रंग खाकी है ।।
बीत गए————————————————–।५।
गढ़कर भेज दिया आंगन में,पर जानबूझकर इतना फर्ज।
‘दानी’जीवन देकर भूले तुम,आज कौन सुने यह अर्ज।
मैं भूलों का सागर स्वामी, पर देते क्यों न माफ़ी हैं।।
बीत गए ————————————————।६।
प्रतिपल चक्रवातों सा सम्मुख, प्रवाहित आँखों से नीर ।
रेखें खिंचती ज्यों टूटे दर्पण पर,सहता हो ज्यों निर्झर पीर।।
रह रह के यों दुखद सरतियां,उमड़ि घुमडि उफनाती हैं।
बीत गए ————————————————-।७।